________________ डिसेम्बर 2008 * ईख का रस स्वीकार्य है - भगवान ने भी लिया था - इसका मतलब यह हरगिज़ नहीं कि कोई उसका उद्योगीकरण कर उसे बेचना भी शुरू कर दे / क्योंकि इसमें मुख्य बात हिंसा का - अनन्तर व परम्पर हिंसा का - त्याग करने की है। यह बात यदि लेखिका ने सोची होती तो उन्हें सब कुछ तर्कसंगत दिखाई पडता / इसी तरह वाहन का उपयोग करने से वाहन को बनाने-बेचने की छूट नहीं मिल जाती / भाटी कर्म में भी वाहन-पशु व. का भाडे से देने का जो निषेध है उसमें भी मुख्य कारण हिंसा ही है। पैसे ब्याज पर देना- यह यदि नीति से होता है तो प्रस्तुत भी है, पर ऐसे व्यवसाय में नीति कितनी होती है - यह तो जगजाहिर है / / * मुख्य बात तो यह है कि - ऐसे उदाहरणों को देने से ये व्यवसाय उचित/ अनिषिद्ध/अहिंसक नही बन जाते / वे अनुचित / निषिद्ध व हिंसक ही हैं। दिगम्बरों ने भले ही 15 कर्मादानों की नाम से गिनती न की हो पर प्रकारान्तर से तो उन्होंने आरम्भ-उद्योंगों का त्याग करने का कहकर यह बात बता ही दी है। निष्कर्ष : प्रत्येक धर्म के तत्त्वाधार अंश जैसे त्रिकालाबाधित होते हैं। वैसे आचार के मूल अंश भी सार्वभौम व त्रिकालाबाधित होते हैं। भगवान पतंजलि ने योगसूत्र में कहा है कि - अहिंसा-सत्यास्तेय-ब्रह्मचर्य-परिग्रहा यमाः // जाति-देश-काल-समयानवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम् / / हिंसा तीनों काल में हर जाति-देश-समाज में त्याज्य ही है और अहिंसा ही आदरणीय है - यह तथ्य सर्वथा भूलना नहीं चाहिए / उसे सामाजिक मान्यताओं से कोई वास्ता नहीं है। चाहे समाज बदले-जमाना बदले, हिंसा का त्याग तो करना ही होगा, यदि धर्म की भावना है। फलतः हिंसक व्यवसाय हर काल में निषिद्ध थे - हैं और रहेंगे भी / अस्तु / ' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org