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अनुसन्धान ४६
चूंकि गृहस्थ सर्वथा (नव कोटि से) तो आरम्भ का त्याग नहीं कर सकता तथापि कितनेक भंगो से तो वह अवश्य त्याग कर सकता है । शास्त्रों में व्रत - पच्चक्खाण के मूल ४९ भंग (प्रकार) १ काल के, त्रिकाल के १४७ भंग और उत्तर प्रकार तो करोड़ों बताए हैं। उनमें से श्रावक अपनी शक्ति व भावना के अनुसार कुछ भंगों से तो आरम्भादि का अवश्य त्याग कर सकता है । इसमें त्याग का महत्त्व तो है साथ ही भावना का भी महत्त्व है। जैसे कोई दरिद्र मनुष्य किसी कर्मादान का आचरण नहि करते हुए भी त्यागी नहीं कहा जाता, जब कि कोई समझदार मनुष्य अपनी भावना से त्याग करे तो उसका त्याग सफल होता है ।
● प्राचीनतम जैन आगमों में गृहस्थ के लिए जो षट्कर्म बताए हैं उनमें असि मसि - कृषि व. का एवं ७२ कला में जो वाणिज्य कला का उल्लेख है वह, जितनी कम से कम हिंसा हो इस प्रकार, अपना व परिवार का निर्वाह करने के लिए है, नहि कि आरम्भ समारम्भ बढाने के लिए, और ना ही उनसे हिंसा की छूट मिल जाती है ।
कलाओं व शिल्पों का शिक्षण लेना इसका भी मतलब ऐसा नहीं होता कि उन सब का उद्योगों एवं व्यवसायों के लिए उपयोग किया जाय ! वे सिर्फ जानने योग्य हैं और विपत्ति में / परिस्थितिवश उनका उपयोग हो सकता है। यूं भी सभी पदार्थ उपादेय नहीं होते पर ज्ञेय तो होते ही हैं ।
श्रावकाचार के प्रायः सभी ग्रन्थों में जहां जहां पन्द्रह कर्मादानों की बात आती है वहां स्पष्ट कहा है कि ये १५ नाम केवल गणना के लिए है, लेकिन उपलक्षण से उनके सदृश / असदृश सब हिंसक - सावद्य - गर्हित व्यापारों को त्यागना ही चाहिए । इसलिए १५ की संख्या को लेकर या अन्योन्याश्रितता बताकर जो विसंगति दिखाई है वह अप्रस्तुत ही है ।
सात व्यसनों के निषेध में मद्य का निषेध होते हुए भी रसवाणिज्य में मुख्यतः मद्य की गिनती की है इसमें कुछ अटपटा नहीं है। कोई श्रावक ऐसा भी सोचे कि 'मद्य पीने का निषेध है - बेचने का तो नहीं है', और वह मद्य का व्यवसाय शुरू कर दे, तो उसे भी रोकने के लिए रसवाणिज्य में उसका निषेध किया है ।
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