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________________ डिसेम्बर २००८ कहना योग्य नहीं है। • जैन समाज पर हिन्दु धर्म का प्रभाव बढता गया, और इसी कारण से ऐसा जो कहा गया जैन परम्परा ने इन व्यवसायों का निषेध किया उसमें यह कहना है कि प्रत्येक समाज-धर्म का प्रभाव परस्पर पड़ता ही है । समाज की व्यवस्था ऐसे ही चलती है। और जैसे जैन धर्म पर हिन्दु धर्म का प्रभाव पडा है वैसे हिन्दुओं पर भी जैनों का प्रभाव पडा ही है । उदा० हिन्दु धर्मियोंने सदियों से चल रही यज्ञ की हिंसा जैनों के प्रभाव से ही बन्द कर दी छोड दी । - - दूसरी बात यह है कि - ब्राह्मणों ने जिन्हें शूद्रों / अतिशूद्रों के व्यवसाय माने उनको जैन परम्परा ने भी निम्न दर्जे के व्यवसाय समझकर निषेध किया होगा ऐसी मान्यता सर्वथा तर्कसंगत नहीं है। जैनों की तो एक ही भावना थी और है- जहां जहां जिस किसी भी व्यवसाय में हिंसा हो उसका त्याग करना । उस में उच्च-नीचता देखने की बात तो गौण है । अहिंसा ही जैनों का मुख्य ध्येय था, है और रहेगा । ऐसे लोग भी जैन परम्परा में थे (और है) कि जो ऐसा ही व्यवसाय करते थे जिसमें तनिक भी हिंसा न हो । उदा० पगड़ियाँ बाँधने का व्यवसाय या पुस्तक लेखन का व्यवसाय । ५३ Jain Education International • 'जब तक व्यक्तिनिष्ठ और छोटे पैमाने पर ऐसे व्यवसाय चलते थे तब तक उनका निषेध उचित था; आज, उद्योगों के जमाने में यह निषेध योग्य नहीं है - इसलिए आधुनिक परिप्रेक्ष्य में श्रावकाचार में पन्द्रह कर्मादानों की संकल्पना का औचित्य लुप्तप्राय ही है' ऐसा कैसे कहा जा सकता है ? छोटे पैमाने पर चलते व्यवसायों में भी जब हिंसा निहित है तब उसके उद्योगीकरण में तो कितने आरम्भ समारम्भ व कितनी हिंसा होगी ? जिसके दिल में धर्म बसा हुआ है ऐसा जैन श्रावक तो हमेशा हिंसक व्यापार को छोडने की ही भावना रखता है । परिस्थितिवश यदि वह उसे सर्वथा त्याग न पाए तो भी उसकी भावना तो उस व्यवसाय को छोडने की ही रहती है । इसलिए आज की परिस्थिति में तो पन्द्रह कर्मादानों का त्याग बहोत ही प्रस्तुत है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229452
Book TitleJain Shravakachar me Pandraha Karmadan Ek Samiksha Is par Kuch Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyankirtivijay
PublisherZZ_Anusandhan
Publication Year
Total Pages6
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size289 KB
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