________________ अनुसन्धान-५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-१ (रुणझुणि) मा रुणो धूनि (ध्वनि) स्व(?) पुनः सा दिसि सा दिक् / म जोइ मा विलोकय त्वम् / पुनः म रोयइं (रोइ) रुदनं मा कुरु / यतः सा मालई(इ) सा मालती / दें(दे)संतरिअ देशान्तरिताऽस्ति / जसु यस्याः / विउ(ओ)इ वियोगे / तुहं(हुं) त्वम् / मरइ मरति // 65 // [तुम्हे तुम्हइं जाणह / तुम्हे तुम्हइं पेच्छइ // 66 // ] तु० / तुझे (तुम्हे) यूयं जानीतः(त) / तुह्मइ (तुम्हइं) युष्मान् पश्यतु // [पई मुक्काहं ३°विवरतरु फिट्टइ पत्तत्तणं न पत्ताणं / तुह पुणु छाया जइ होज्ज कहवि ता तेहिं पत्तेहिं // 67 // ] [प]इ (इं)० / पयं (पइं) त्वया / मुक्काहं मुक्तानाम् / विवरतरु वि विहंगाः तैर्वर विवर एवंविधो वृक्षः तस्य संबोधनम् हे३१ विवरतरोः(रो)। पत्ताण(णं) पत्राणाम् / पत्तत्तण(णं) पत्रत्वम् / न फिट्टइ न याति / पुणु पुनः / जइ यदि / कहवि कथमपि / तुह तव / च्छाया (छाया) शोभा / होज्ज अभविष्यत् / ता तावत् / तेहिं पत्तेहि(हिं) तैः पत्रैः // 67 // ३२महु० / महु० C/o. देवीकमल जैन स्वाध्याय मन्दिर ओपेरा, विकासगृह रोड, अमदावाद-७ 30. वि वरतरु-प्रा. व्या. 31. हे विवरतरो अथवा हे वरतरो-दो. वृ.