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अनुसन्धान - ५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग - १
म- प्राकृत - शब्दानुशासनगत
सिद्धहेमअपभ्रंश - दोहा - सवृत्ति
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यनी सूरिपद - नवमशताब्दीवर्षे प्रगट थनार अनुसंधानना ‘श्रीहेमचन्द्राचार्य - विशेषाङ्क' माटे पू. आचार्य श्रीविजयशीलचन्द्रसूरि म. पासेथी मने २ पानांनी प्रत प्राप्त थई. जे प्राये १८ मी सदीनी छे अने अपूर्ण छे.
सं. साध्वी दीप्तिप्रज्ञाश्री
आ प्रतमां कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य विरचित सिद्धहेमशब्दानुशासनना अष्टमाध्यायरूप प्राकृत - व्याकरणना चोथा पादमां आवता अपभ्रंशभाषासम्बन्धि सूत्रोमां (४.३३० - ४.४४६) आपला उदाहरण-दोहानी टीका छे.
प्रतनां पानामां लखाण त्रिपाठी छे. वच्चे मूळ उदाहरण- दोहा छे अने उपर-नीचे तेनी टीका छे. ४- ३३० थी ४-३६७ सुधीना सूत्रना मूळ उदाहरणदोहा छे, अने ४-३३० थी ४ - ३७० सूत्रना प्रथम उदाहरण - दोहा सुधीनी टीका छे. लखतां लखतां अधूरी रहेली आ प्रत छे.
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आ प्रतमां वृत्तिना प्रमाणमां मूळ उदाहरण - दोहामां अशुद्धिनुं प्रमाण थोडुं वधु छे. जेने संमार्जित करवानो यथाशक्य प्रयत्न कर्यो छे.
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जैन आत्मानन्द सभा-भावनगरथी प्रकाशित अने पू. वज्रसेनविजयजी म.सा. द्वारा सम्पादित प्राकृत-व्याकरणना पुस्तकमां अपभ्रंश - दोधकवृत्ति छपायेली छे. तेनाथी आ वृत्ति थोडी अलग छे.
आ प्रतमां बधे अनुनासिकना स्थाने अनुस्वार लखेल छे.
• जिवँ तिवँ ना स्थाने जिम्व तिम्व लखेल छे.
मुद्रित पुस्तकमां मूळ दोहा तथा दोधकवृत्तिमां जे भिन्नता छे ते टिप्पणमां नोंधी छे.
अपूर्ण प्रति होवाथी स्वाभाविक रीते ज तेना कर्ता के लेखक विषे