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________________ मार्च २००९ को ध्यान नहीं है । ६० वर्ष के साहित्यिक सेवा कार्य में रहते यह लेखन प्रशस्ति की प्रतिलिपि की थी । किन्तु मुझे आज स्मरण नहीं है कि यह प्रति किस भण्डार की और कहाँ पर थी । अन्वेषणीय है । जैन पुस्तक प्रशस्ति संग्रह (सम्पादक मुनि जिनविजयजी), कैटलॉग ऑफ संस्कृत और प्राकृत मैन्युस्क्रिप्ट जैसलमेर कलेक्शन (सम्पादक पुण्यविजयजी) में इसका उल्लेख नहीं है । तथा ॥ ६० ॥ अर्हम् । 1 सुपर्ववेलिर्वार्धष्णु विश्ववंशशिरोमणिः । श्रीमद्गुरुगिरिस्थाणु - जयादूकेशवंशराट् ॥१॥ काकुले श्रेष्ठधुरा धुरन्धरो - ज्जोषदे ? श्रीजिनदत्तसूरिभि: । सपादलक्षैस्मदनैस्समन्वित, ऊकेशपुर्यां सुकृते नियोजितः ॥ २ ॥ तदन्वये श्रेष्ठ गजू प्रसिद्धः पुत्रस्तदीयो गणदे समृद्धः । श्रीधांधलाख्योपि ततो मुमुक्षुः श्रीपद्मकीत्र्त्या प्रवरप्रसिद्धः ||३|| आंबा-जींदा - मूलराजा सत् पितृव्यसहोदराः । अर्हत्प्रतिष्ठामुच्चाया-मत्युन्नतिमकारयन् ॥४॥ शत्रुञ्जयादौ फुरमाण शक्ते - निःस्वानयुङ्क्षङ्घ्रिचतुर्दशाब्दे ( १४३६ ) | यात्रा समं श्रीजिनराजसूरे-ष्टङ्कार्धलक्षव्ययतो व्यधुर्ये ॥५॥ धांधलिर्मम्मणस्तस्य भार्या श्रीः श्रीरिवापरा । जयसिंह - नृसिंहाख्यौ, क्षितौ ख्यातौ सुतौ पुनः ||९|| आस्तां मोहण जन्मात्सै, श्रेष्ठि कीहट - धन्यकौ । शत्रुञ्जयादियात्रां या- वका सङ्घपत्वतः ॥७॥ ताभ्यां बन्धुभ्यां सह जेसलमेरौ विधापिता याभ्याम् । जैनी महाप्रतिष्ठा त्रिसप्तभुवनैर्मिते (१४७३) वर्षे ||८|| अभवज्जयसिंहस्य, पत्नीयुगलमुत्तमम् । सिरू सरस्वतीसंज्ञं, सरस्वत्याः सुतोत्तमौ ॥९॥ रूपा -थिल्लाभिधो रूप- प्रिया मेलू चिपीद्वयम् । पुत्रो नाथूः सुतो त्वस्य, राजाख्य-समराभिधौ ||१०|| Jain Education International २३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229343
Book TitleKalpasutra Lekhan Prashasti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherZZ_Anusandhan
Publication Year
Total Pages9
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size323 KB
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