________________
मार्च २००९
स्वमातृपुण्यार्थं श्रीनमिनाथबिम्बं का० प्र० श्रीखरतरगच्छे श्रीजिनभद्रसूरिपट्टे श्रीजि [न] चन्द्रसूरिभिः ॥
प्रतिष्ठासोमगणि
श्री जिनभद्रसूरि के शिष्यों में महोपाध्याय सिद्धान्तरुचि के शिष्य साधुसोमणि आदि प्रसिद्ध हैं। सोमनन्दी देखकर मैंने यही सोचा कि ये भी जिनभद्रसूरि के पौत्र शिष्य होंगे । इसीलिए खरतरगच्छ साहित्य कोश, क्रमांक २२३२ और २७८० में मैंने सिद्धान्तरुचि का ही शिष्य अंकित किया है । किन्तु उपाध्याय श्री भुवनचन्द्रजी महाराज ने सितम्बर २००६ में केवल द्वितीय पत्र की फोटोकॉपी भेजी थी, जिसमें मुनिसोम की राजस्थानी भाषा में रचित लघु कृतियाँ थी । इन लघु कृतियों में एक कृति में स्पष्ट लिखा है"कमलसंजमउवझाय सीस करइ नितु सेव... कमलसंजमउपझाय पदपंकजए कवि मुनिमेरु इम कहइ ।" अतएव यह स्पष्ट है कि मुनिमेरु कमलसंयमोपाध्याय के शिष्य थे जिन्होंने ने कि उत्तराध्ययन सूत्र पर सर्वार्थसिद्धि टीका १५४४ में की थी । हाँ, दीक्षा अवश्य ही सोमनन्दी के नाम से श्री जिनभद्रसूरि ने ही प्रदान की थी । इस सूचना के लिए मैं उपाध्याय भुवनचन्द्रजी का कृतज्ञ हूँ
खरतरगच्छ साहित्य कोश में मुनिसोमगणि रचित दो कृतियों का उल्लेख हुआ है । क्रमांक २२३२ पर रणसिंहनरेन्द्रकथा, रचना संवत् १५४० तथा क्रमांक २७८० पर संसारदावा पादपूर्ति स्तोत्र |
२१
भाषा कृतियों में उपाध्याय श्री भुवनचन्द्रजी महाराजने १६वीं शताब्दी लिखित जो द्वितीय पत्र भेजा है उसके अनुसार राजस्थानी भाषा की लघुकृतियाँ ओर हैं :
१. ऋषभदेव फाग, मुनिमेरु / कलमसंयमोपाध्याय, भाषा - राजस्थानी, स्तवन, अपूर्ण, गा. - १७, अ. उपाध्याय भुवनचन्द्रजी, प्रतिलिपि विनय
२.
भ्रमर गीत, मुनिमेरु / कलमसंयमोपाध्याय, भाषा - राजस्थानी, स्तवन, गा. - २, आदि - अंधकारुगमिले प्रगट प्रकाशे, अ. मुनिभुवनचन्द्रजी, प्रतिलिपि
विनय
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org