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अनुसन्धान ४७
३. वनस्पति सप्तति
१२. शोकहरोपदेशकुलक ४. गाथाकोष
१३. सम्यक्त्वोत्पादविधि अनुशासनाङ्गांकुशकुलक १४. सामान्यगुणोपदेशकुलक उपदेशामृतकुलक
१५. हितोपदेश कुलक ७. उपदेश पञ्चाशिका १६. कालशतक ८. धर्मोपदेश कुलक
१७. मण्डलविचार कुलक ९. प्राभातिक स्तुति
१८. द्वादशवर्ग आपने नैषधकाव्य पर भी १२००० श्लोक प्रमाणोपेत टीका की रचना की थी किन्तु दुर्भाग्यवश आज वह प्राप्त नहीं है । वर्ण्य विषय
प्रथम पद्य में गाथा छन्द के लक्षण का वर्णन है । दूसरे पद्य में गुरु और लघु का वर्णन करते हुए दीर्घाक्षर, बिन्दुयुक्त, संयोग, विसर्ग और व्यञ्जन आदि का उल्लेख किया गया है। तीसरे पद्य में चतुष्कल (चार मात्राएं) के प्रस्तार का वर्णन किया गया है । चौथे पद्य में उनके अपवाद का भी वर्णन किया गया है । पांचवें, छठे एवं सातवें पद्य में गाथा के प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ चरण में कितनी मात्राएं होती हैं, उसका विवेचन है। आठवें पद्य में गाथा के अतिरिक्त अन्य छन्दों का वर्णन किया गया है । नवमें, दशमें एवं ग्यारहवें पद्य में विपुला, चपला, मुखचपला, जघनचपला के लक्षण प्रतिपादित किये गए हैं । उसके पश्चात् गाथा १३ से १९ तक में गाथा/आर्या के अतिरिक्त विगाथा/उद्गीति, उद्गाथा/उद्गीति, गाहिनी, स्कन्धक आदि के लक्षण देकर लघु और दीर्घ कितने होते हैं, इनकी संख्या बतलाई है । तत्पश्चात् उन-उन छन्दों के प्रस्तारों की संख्या प्रतिपादित की गई है । २३वें पद्य में ग्रन्थकार ने अपना नाम जिनेश्वरसूरि देकर इस ग्रन्थ को पूर्ण किया है।
इसकी मूल भाषा प्राकृत है । कुल २३ गाथाएँ हैं । इस पर श्रीमुनिचन्द्रसूरि ने श्रीअजित श्रावक का उत्साह देखकर इस ग्रन्थ की टीका की रचना की । टीका की रचना संस्कृत में है । आगमों में प्रयुक्त छन्दों
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