________________ अणुव्रतों के सहायक और पोषक व्रतों के रूप में सात शीलव्रत भी बताए हैं जिनमें तीन पर्यावरण से सीधा संबंध रखते हैं क्योंकि ये स्वेच्छा से आवश्यकताओं और आकांक्षाओं को सीमित करने से संबंधित हैं। दिगव्रत -- आवागमन की दिशाओं को सीमित करना। देशावकाशिक व्रत -- गतिविधियों के क्षेत्र को सीमित करना। उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत -- उपभोग-परिभोग को सीमित करना। ये परिमाणवत अपरिग्रह व्रत के पोषक हैं। अपरिग्रह का संरक्षण की अवधारणा और सिद्धांत के प्रसार में बहुत महत्त्व है। व्यक्ति उपभोग की सीमा करेगा तो समाज में उस मानसिकता का विस्तार होगा और छोटे-छोटे परिमाण विशाल बन पर्यावरण संरक्षण की ओर एक बड़ा योगदान सिद्ध होंगे -- क्योंकि जब स्वेच्छा से उपभोग की सीमा निर्धारित होती है तो प्राकृतिक संपदाओं का दोहन भी स्वतः ही सीमित हो जाता है। इन व्रतों के पालन में कोई कमी न रह जाए, इसके लिए समितियों, गुप्तियों और अतिचार-निषेधों के रूप में अन्य नियम भी परिभाषित किए गए हैं। इनमें सामान्य लगती किंतु महत्त्वपूर्ण बातों की विस्तार से चर्चा की है उदाहरणार्थ-- व्रतों में प्रथम अहिंसा के आचरण हेतु पाँच समितियों का उल्लेख है। इन्हीं में से एक है उच्छिष्ट त्याग और उसके स्थान संबंधी सावधानी। सामान्यतया यह महत्त्वपूर्ण बात नहीं लगती पर पर्यावरण प्रदूषण के दृष्टिकोण से देखें तो इसका महत्त्व समझ में आता है। आज प्रदूषण का एक बड़ा कारण उच्छिष्ट का असावधानी से त्याग है। इस प्रकार यह स्पष्ट कहा जा सकता है कि पर्यावरण संरक्षण से अहिंसक जीवन पद्धति अभिन्न रूप से जुड़ी हुई है। इस संदर्भ में इसके तीन महत्त्वपूर्ण आधार हैं - समता अर्थात् संतुलन, अहिंसा अर्थात् संयमित अतिक्रमण और अपरिग्रह अर्थात् संतुलित व संयमित उपभोग। द्रष्टव्य आचारांग सूत्र।