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इसी काल में उन्होंने पूज्य धर्मदास जी संप्रदाय के मुनि श्री गिरिधरलाल जी के प्रवचन सुने. धर्म के प्रति आकर्षण का भाव जागृत हुआ. सम्यकत्व ग्रहण किया. इसके पश्चात् उनका ईहलौकिक जीवन आरंभ हुआ. इस बीच मामा जी का निधन हो गया. दुकान की पूरी जिम्मेदारी कंधों पर आई. विधवा मामी जी और ममेरे भाई घासीराम जी के पालन पोषण की जिम्मेदारी भी उनपर ही आई. इन्हीं दिनों थांदला में मुनिवर्य श्री राजमल जी महाराज के शिष्य मुनि श्री घासीलाल जी महाराज तथा मगनलाल जी महाराज और श्री घासीलाल जी महाराज के शिष्य श्री मोतीलाल जी महाराज तथा देवीलाल जी महाराज पधारे थे. आपने मुनियों के दर्शन किए . प्रवचन लाभ किया. मुनि धर्म का स्वरुप समझ लिया. घासीदाम जी महाराज ने केशलोंच किया. महाव्रतों का उच्चारण कर दीक्षा प्रदान की. गुरु श्री मगनलाल जी महाराज से शास्त्राध्ययन आरंभ किया. अनेक गाथाएँ और पाठ कंठस्थ किए. दीक्षा के डेढ मास उपरांत गुरु का स्वर्गवास हो गया.
मुनिश्री मोतीलाल जी महाराज की निरंतर सार-सँभाल के कारण जवाहरलाल जी धार्मिक क्षेत्र में सूर्य की तरह दीप्तिमान सिध्द हुए. मुनि मोतीलाल जी उच्चकोटि के तपस्वी साधु थे. उदयसागर जी महाराज जवाहरलाल जी की काव्यशक्ति, व्याख्यान कला और प्रतिभा से अपार संतुष्ट हुए. उन्होंने भीलों को निरर्थक हिंसावृत्ति से रोकने के अथक परिश्रम किए. महाराज जी की मुलाकात महाराष्ट्र के जुझारु योध्दा एवं स्वाधीनता संग्राम के सेनानी जो सेनापति नाम से ही जाने पहचाने गए उनसे हुई जिनका नाम पांडुरंग बापट था. सेनापति बडी श्रध्दा के साथ मुनि श्री का प्रवचन सुना करते थे. पूरा प्रवचन मराठी कविता में अनुवादित कर देते थे.
लोकमान्य तिलकजी से जवाहरलाल जी का संवाद हुआ. उन्होंने भी जवाहरलाल जी की प्रतिभा का बखान किया. महाराष्ट्र के दीर्घकालीन यात्रा के समय जवाहरलाल जी समाज के विविध नेताओं और कार्यकर्ताओं के संपर्क में आए थे. उन्होंने मिल के वस्त्रों को सर्वथा हेय समझ उनका त्याग कर दिया. खद्दर का प्रचार प्रसार किया. उनका कथन था कि साधु संत अपनी जिम्मेदारी को समझें तो अहिंसा का पालन हो सकता है. जवाहरलाल जी अस्पृश्यता के विरोधी रहे. उन्होंने अछुतोध्दार का बीड़ा उठाया. उन्होंने समझाया कि धर्मभावना का तकाजा है कि मनुष्य मात्र को बंधु समझा जाए. तथाकथित शुद्र तो हमारे समाज की नींव है. अंत्यजों के प्रति दुर्व्यवहार को वे धर्म का उल्लंघन मानते रहे. मनुष्यता का अपमान बताते रहे. यह भावना न केवल जाति को अपितु देश को दुर्बल बनाती है यह उनका विचार था. वे आत्मा के पालन की बात करते रहे. उनकी प्रशंसा में कहा गया
यो जैनागमत्वविद् भव महा सन्तापहारी गिरा, नित्य पूरयते दयारसमलं नो मानवानां हृदि।
पीत्वा यस्य वचः सुधां किलजना मुंचंति दोषान् खिलान् , स श्रीयुक्त जवाहरो विजयतामाचार्य वर्यश्चिरम्।।
जवाहरलाल जी महाराज का कार्यकाल राष्ट्रीय आंदोलन से भरपूर रहा. देश के नेता तो क्या लगभग पूरा देश ही कारागार बन गया था. महाराज श्री के प्रवचन धार्मिकता से सुसंगत होते हुए भी राष्ट्रीयता के रंग में रंगे हुए थे. शुध्द खद्दर के वस्त्र, अहिंसा की उपासना, राष्ट्रीयभाव भरी ओजस्विनी वाणी का प्रभाव जन-जन पर जादू-सा था. सरकार भयभीत और जनता निर्भय थी. यह धर्माचार्य सरकार की आँखों में खटकता रहा. श्रावक चिंतित थे. महाराज श्री की गिरफ्तारी से भयाक्रांत थे. कुछ ने तो महाराज जी से अपनी बात को धर्म के क्षेत्र तक ही सीमित रखने की प्रार्थना की. इसपर महाराज जी की वाणी का सिंहनाद गरज उठा. " मैं अपना साधु धर्म भली भाँति समझता हूँ. मुझे अपने उत्तरदायित्व का भी पूरा भान है. मैं जानता हूँ कि धर्म क्या है ? मैं साधू हूँ. अधर्म के मार्ग पर नहीं जा सकता. किंतु पराधीनता पाप है. पराधीन व्यक्ति ठीक तरह से धर्म की आराधना नहीं कर सकता. मैं अपने व्याख्यान में प्रत्येक बात सोच-समझ कर तथा मर्यादा के भीतर रह कर कहता हूँ. इस पर यदि राजसत्ता हमें गिरफ्तार करती है तो हमें डरने की आवश्यकता क्या है ? कर्तव्य-पालन में डर कैसा ?......... यदि कर्तव्य पालन करते हुए जैन समाज का आचार्य गिरफ्तार होता है तो इसमें जैन समाज के लिए किसी प्रकार के अपमान की बात नहीं है. इसमें तो अत्याचारी का अत्याचार सबके सामने आ जाता है. "