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१) आचार्य श्री जवाहरलाल जी
जैन परंपरा के एक ओजस्वी तेजस्वी वक्ता के रुप में जवाहर लाल जी का योगदान विशिष्ट है. आप जैन शास्त्रों के मर्मज्ञ एवं अद्भुत भाष्यकार रहे. आपने विविध धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन किया. गाँधी जी के साथ भारत के स्वाधीनता संग्राम में आपने जम कर हिस्सा लिया. खद्दर के प्रयोग का आधार आपकी दृष्टि में आर्थिक या राजनीतिक से बढ़कर अहिंसा पालन का था. चरबी लगाए हुए मिल के कपडों का उपयोग करने से खादी का उपयोग करने में अहिंसा का पालन अधिक होता है यह आपकी मान्यता रही. आपने स्वयं खद्दर का इस्तेमाल किया और श्रावकों को भी खादी को स्वीकारने का उपदेश बहुत आग्रहपूर्वक किया.
अपने व्याख्यानों के माध्यम से आपने गोपालन का महत्व समझाया. आप ब्रह्मचारी रहे. अहमदनगर में तिलक जी से संवाद हुआ. राजकोट में सरदार पटेल और गाँधी जी ने आपके दर्शन किए. इनके अलावा विट्ठलभाई पटेल, जमनालाल बजाज, विनोबा भावे, ठक्कर बाप्पा, रामेश्वरी नेहरु, कस्तुरबा, सेनापति बापट आदि से आपका परिचय हुआ.
विक्रम संवत १९३२ कार्तिक शुक्ल चतुर्थी को थांदला (म.प्र.) में आपका जन्म हुआ. सोलह वर्ष की अवस्था में आपने जैन भागवती दीक्षा का अंगिकार किया. संवत २००० में आषाढ शुक्ला अष्टमी को भीनासर (बीकानेर - राजस्थान) में आपका स्वर्गवास हुआ. आपकी दृष्टि उदार, प्रगतिशील तथा विचार राष्ट्रचेतना और विश्वमैत्रीभाव से ओतप्रोत थे. आपने भारतीय स्वाधीनता संग्राम, सत्याग्रह आंदोलन, अहिंसक प्रतिरोध, खादी धारण, गो पालन, अछुतोध्दार, व्यसन मुक्ति, बाल विवाह, वृध्द विवाह, सूदखोरी, मृत्युभोज जैसी कुप्रथाओं के विरोध में जनमानस को जागृत किया. आपके राष्ट्रधर्मी, क्रांतिकारी, आत्मलक्ष्यी, व्यक्तित्व से प्रभावित हो कर तिलक जी, महात्मा गाँधी जी, पंडित मदनमोहन मालवीय, सरदार वल्लभभाई पटेल के समान राष्ट्रधर्मी नेताओं
आपका संपर्क पा कर अपने आपको धन्य समझा. बहुजन भी आपके संपर्क में आए. 'जवाहर किरणावली
' शीर्षक से ५१ खंडों में प्रकाशित आपका प्रेरणास्पद विशाल साहित्य विश्व मानवता की मूल्यवान निधि है. वह ओज, शक्ति, चरित्रनिर्माणपरक जीवन साहित्य है. इन ग्रंथों में जैन तत्व चिंतन के साथ रामायण, महाभारत से संबध्द लेखन हैं. ' भगवती सूत्र' पर आठ खंडों में किया हुआ आपका विवेचन विशिष्ट माना गया है. आपने सत्पुरुषों की जीवनियाँ लिखने का कार्य किया है. ' गृहस्थ धर्म ', ' जीवन धर्म ',' नारी जीवन ' से सबंधित आपका लेखन विशेष अर्थों में शोभित है.
मध्यप्रदेश के मालवा प्रांत में झाबुआ रियासत के अंतर्गत थांदला नामक जो कस्बा उसके चारों ओर भीलों की बस्ती है. इसी बस्बके में ओसवाल जाति शिरोमणि, कवाडगोत्रीय सेठ ऋषभदास जी नामक सद्गृहस्थ रहते थे. उनके दो बेटे थे धनराज जी एवं जीवनराज जी ! धनराज जी के तीन बेटे और एक कन्या थी. बेटे थे खेमचंद जी, उत्तमचंद जी और नेमचंद जी, कन्या ने आगे चल कर पूज्य श्री धर्मदास जी बहाराज के संप्रदाय में दीक्षा ग्रहण की. वहीं पर धोका गोत्रीय सेठ श्रीचंद जी रहते थे. उनके दो बेटे थे पूनमचंद जी और मोतीलाल जी !मोतीलाल जी की दो संताने थीं. नाथी बाई और मूलचंद जी ! जीवराज जी का विवाह नाथी बाई से संपन्न हुआ. इनके सुपुत्र जवाहरलाल जी महाराज. सुकन्या जडाव बाई. दो साल की उम्र में मातृछत्र बिखर गया. पिता जी ने उनका लालन-पालन किया. पाँच साल की उम्र में पिता जी का देहावसान हुआ. अपने मामा जी श्री मूलचंद जी धोका के घर थांदला में जवाहर जी का बचपन बीता. मामा जी कपडे के प्रतिष्ठित व्यापारी थे. जवाहर जी ने जैनागम को तो विशेष रुप से पढ़ा ही, इसके साथ उपनिषद, गीता, संत साहित्य, गाँधी साहित्य का भी स्वाध्याय किया. उनके प्रवचनों से स्पष्ट होता है कि उनका अध्ययन तात्विक, मार्मिक एवं सम्यक् था. कुछ गुजराती, हिंदी और गणित सीख कर ही आपने स्कूल छोड दिया. बचपन में जवाहरलाल जी अनेक दुर्घटनाओं से बाल-बाल बच गए. कई बार सन्तिपात जैसे भयंकर रोगों का सामना करना पडा. ग्यारह वर्ष की उम्र में उन्हें मामा जी के साथ कपडे की दुकान सँभालनी पडी. मनोयोग से इस काम में उन्होंने निपुणता पाई.