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महाराज श्री के प्रवचनों के प्रभाव से समाज व्यसनमुक्त हुआ. पुरानी अदावतों से छुटकारा पा लिया. आपस का बैर भाव मिटा. प्रेमभाव जागा. २९ अक्तुबर १९३६ को महाराज की राजकोट में गाँधी जी से मुलाकात हुई. महाराज की उपदेश शैली, उदार विचार एवं उच्च संयम परायणता से वे पूर्व परिचित थे. महाराज ने सामने दीवार पर टँगी घडी की ओर निर्देश करते हुए कहा- " देखिए, यह सामने घडी है. इसकी दोनों सुइयाँ चल रहीं हैं ,यह बात तो सभी जानते हैं, पर सुइयों को चलनाने वाली मशीनरी इसके भीतर है उसे कितने लोग जानते हैं ? असल चीज तो मशिनरी ही है. " गाँधी जी ने उपदेश सुनने आने की इच्छा प्रदर्शित की लेकिन जनता उन्हें सुनने का अवकाश ही कहाँ देती थी? एक बार गाँधी सप्ताह के दरमियान सरदार पटेल महाराज श्री से मिले. उस समय अपने वक्तव्य में महाराज ने कहा था- " महात्मा गाँधी के मौखिक यशोगान मात्र से गाँधी-सप्ताह नहीं मनाया जा सकता परंतु महात्मा जी ने जिस खादी को अपनाकर देश को समृध्द बनाने का सुंदर उपाय खोज निकाला है और गरीबों के भरण-पोषण का द्वार खोल दिया है उसे अपनाने से ही सच्चा गाँधी सप्ताह मनाया जा सकता है."
श्री. पट्टाभीसीतारमैया, डॉ.प्राणजीवन मेहता से महाराज श्री का संवाद हुआ. राजकोट के सत्याग्रह प्रसंग में उनकी शानदार भूमिका रही. प्रजा में असंतोष की आग धधक रही थी. सैंकडों प्रजा-सेवक कारावास में ठुसे जा रहे थे. नाना प्रकार के कष्ट भुगत रहे थे. महाराज श्री ने उस समय शांतिपूर्ण और त्यागमय जीवन बिताने की प्रेरणा दी. जबतक सत्याग्रही भाई-बहन जेल-यातनाओं को झेल रहे थे तब तक पक्वान्न न खाने एवं ब्रह्मचर्य पालन करने का आग्रह देशवासियों से किया. उनकी समस्त जीवन साधना अहिंसक थी. उन्होंने अहिंसा की बारीकियों को, अहिंसा के तेज को, अहिंसा की अमोघता को न केवल समझा ही था, वरन् अपने प्रत्येक व्यवहार में उसका अनुसरण किया था. इस कारण उन्होंने अहिंसात्मक उपायोंद्वारा सत्याग्रह में योगदान करने की प्रेरणा दी. उनकी दृष्टि में जनसामान्य की सहानुभूति सत्याग्रही का सर्वोतम बल है. उनका कथन था " सत्याग्रह के बल की बराबरी किसी भी प्रकार का बल नहीं कर सकता. इस बल के सम्मुख मनुष्य की शक्ति तो क्या देव शक्ति भी हार मानती है... प्रह्लाद के जीवन का इतिहास भी सत्याग्रह का महत्वपूर्ण दृष्टांत है. भगवान महावीर ने सत्याग्रह का प्रयोग स्वयं अपने आप पर किया. इसी कारण वे चंड कौशिक के समान विषधर नाग के स्थान पर लोगों के लाख मना करने पर भी निर्भयता पूर्वक जा पहँचे थे. आज राज्यभक्तियुक्त सविनय असहयोगआंदोलन करना प्रजा का प्रमुख धर्म है. "
जवाहरलाल जी के चिंतन की कुछ कणिकाओं का यों परिचय करा दिया जा सकता है :
प्रार्थना :--- हे प्रभु ! मैं ऊर्ध्वगामी होने की संकल्पयात्रा का पथिक तेरे महाद्वार पर खडा हूँ. उन्नति के अंतिम और महान लक्ष्य की सिध्दि में प्रमाण करने की इच्छा मेरे मन में समाई हुई है. मुझे ऐसी शक्ति प्रदान कीजिए कि मैं अधोगामी न बन जाऊँ, मेरी अवनति न हो, प्रभु ! विश्व के प्रलोभन मुझे यत्किंचित भी आकर्षित न करें. हे प्रभु, अगर आप मेरे लिए कवच बन जाएँ तो मैं कितना भाग्यशाली कहलाऊँगा! मैं ने आपके दिव्य स्वरुप को जान कर अपने हृदय में स्थान दिया है. मैं अपने हृदय को आपका मंदिर जानने लग गया हूँ.
नामस्मरण:--- महापुरुषों के जीवन और जीवन-साधना में नाम स्मरण का स्थान एवं महत्व सदा से अत्युच्च रहा है. जब वे गृहस्थ जीवन की समस्याओं से हार-थक जाते हैं, जब उनका चित्त अशांत एवं व्यग्र बन जाता है उस समय ईश्वर का नाम ही उनके लिए शंति प्रदान करता है. भयंकर आपत्ति काल में भी भगवत्स्मरण से ही वे धैर्य को प्राप्त होते हैं. नामस्मरण ही उनका पथ-प्रदर्शन करता है. जिस समय मनुष्य सिध्दोडह, शुध्दोडह अनन्त ज्ञानादि गुण समृध्दोडहम् ' के मर्म को जान कर भगवान में अर्थात् उसके परम तत्व में तन्मय भाव से नामस्मरण करने लगते हैं. तब उन्हें अपने अंतस में स्थित परम शक्ति का आभास होने लगता है यह आभास जैसे जैसे निर्मल बनते जाता है, वैसे वैसे परमानंद के अनुभव में वृध्दि होते जाती है. भगवत् स्मरण आत्म विश्वास को निमंत्रित करता है. नामस्मरण आत्मिक शक्ति का ऊर्ध्वारोहण करता है क्यों कि पूर्ण विकसित आत्म तत्व का ही नाम भगवान है.