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| ज्ञानावरणीय व दर्शनावरणीय कर्मों के क्षयोपशम या नाश और लब्धि व उपयोग स्वरूप भाव इन्द्रिय का कार्य है । और यही स्मृति संस्कार अपने | आत्मा के साथ अगले जन्म में भी जाते हैं । उस समय यदि क्वचित् पूर्वभव | संबंधि कोई दृश्य या पदार्थ अपने सामने आता है तो उसका स्मरण हो जाता है जिसे जातिस्मरण ज्ञान कहा जाता है । जैन दार्शनिकों ने इस प्रकार के | पूर्वजन्म संबंधित ज्ञान को मतिज्ञान अर्थात् स्मृतिशक्ति का ही प्रकार माना है । "
संक्षेप में, सिर्फ बाह्य उपकरण स्वरूप द्रव्य इन्द्रिय प्राप्त होने से आत्मा को उसका अनुभव नहीं हो सकता है । किन्तु जब तक बाह्य उपकरण स्वरूप द्रव्य इन्द्रिय से गृहीत संकेतों को लब्धि व उपयोग स्वरूप भाव इन्द्रिय द्वारा पहचाना नहीं जा सकता तब तक आत्मा को उसका अनुभव नहीं होता है । इस कार्य में मन या मस्तिष्क एक आवश्यक साधन है । वह इन्द्रिय के विषय | और तत्संबंधित अनुभव को आत्मा के साथ जोड़ देता है ।
जैन परंपरा में कायोत्सर्ग एक प्रकार का उत्कृष्ट ध्यान है । कायोत्सर्ग में उसके शब्दों के अनुसार काय अर्थात् शरीर का उत्सर्जन किया जाता है और | उसकी एक विशिष्ट प्रक्रिया है । ध्यान अर्थात् मन, वचन, काया की एकाग्रता
वह अच्छा भी हो सकता है और बुरा भी । शुभ ध्यान को जैन परंपरा में | धर्मध्यान और शुक्लध्यान कहते हैं । जबकि अशुभ ध्यान को आर्तध्यान व रौद्रध्यान कहते हैं । प्रिय पदार्थ के वियोग में और अप्रिय पदार्थ के संयोग में | सब को आर्तध्यान होता है । उसी प्रकार प्राप्त किये पदार्थ के रक्षण की चिंता में रौद्रध्यान पैदा होता है । सामान्यतः मनुष्य खराब ध्यान बार बार करता है किन्तु शुभध्यान सभी के लिये बहुत ही कष्टसाध्य है । उसमें ऊपर बतायी हुई समझ काफी महत्त्वपूर्ण सिद्ध हो सकती है । ध्यान में मन का व्यापार ही महत्त्वपूर्ण है । मन जितनी गहराई में सोच सके उतना ध्यान ज्यादा दृढ होता है । किन्तु इस चिंतन का आधार ज्ञान है । जितना ज्ञान विशाल उतनी गहराई में चिंतन हो सकता हो अर्थात् ज्ञान ही ध्यान का आधार है । बिना ज्ञान ध्यान हो ही नहीं सकता ।
कायोत्सर्ग के दौरान मन चिंतन में लग जाता है अतः उसका आत्मा के साथ संबंध जुड जाता है और बाह्य द्रव्येन्द्रिय के साथ उसका संपर्क टूट जाता है इस प्रकार ध्यानस्थ अवस्था में द्रव्येन्द्रिय का भावेन्द्रिय से संबंध
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