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(ग) धर्म, अधर्म, आकाळा और काल
इन चारों द्रव्यों के निमित्तत्व के बारे में अनुच्छेद २.५ में भी विचार कर आए हैं। इनकी उपस्थिति लोक में सर्वत्र ही है, अतः जब जीवादिक पदार्थ हलन चलन आदि करते हैं तो उन्हें प्रयत्नपूर्वक इन धर्मादिक निमित्तों को खोजकर इनका अवलम्बन नहीं लेना पड़ता। लोकाकाश की सीमा के भीतर, उपादान द्रव्य जब-जहाँ गति/स्थिति/ परिणमन/अवगाहन करता है, तब-तहाँ तदनुकूल साधारण निमित्त उपलब्ध रहता है। अतः यहाँ निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध स्वतः बन जाता है, बनाना नहीं पड़ता।
(घ) इस प्रकार, ऊपर 'क' से 'ग' तक कहे गए तीनों प्रकार के निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धों को और उनकी पारस्परिक भिन्नताओं को भली-भाँति समझना ज़रूरी है।
(ङ) चूँकि द्रव्यदृष्टि और पर्यायदृष्टि दोनों एक दूसरे की सम्पूरक हैं और चूँकि दोनों ही दृष्टियों के अविरोधरूप, द्रव्यपर्यायात्मक वस्तुस्वरूप का यथार्थ श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है, इसलिये पक्ष-विशेष के व्यामोह से ऊपर उठकर हमें दोनों ही दृष्टियों की अविरोधरूप, यथार्थ, सम्यक् रीति से चरणानुयोग द्वारा प्रतिपादित विषय को भी समझना चाहिये । द्रव्यदृष्टि की अपेक्षा चरणानुयोग के विषय को ज्ञेय कहा है ज्ञान का विषय कहा है, जबकि पर्यायदृष्टि की अपेक्षा चरणानुयोग का विषय आचरणीय है, आचरण-योग्य है। यदि हम केवल एक दृष्टि को ही अपनाकर चरणानुयोग को मात्र ज्ञान का ही विषय मानेंगे,