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को कोई रोग जन्म से हो - ऐसा नहीं कि पहले नीरोग था, और बाद में रोग हो गया हो। अतः अबुद्धिपूर्वक अज्ञानता (अगृहीत मिथ्यात्व-भाव) और कशाय सदा होते ही रहते हैं। जब ऐसा जीव परपदार्थ का अवलम्ब लेकर, उसमें इश्ट-अनिश्टता का आरोपण करके, उसे अपने कशायरूप परिणमन में निमित्त बनाता है, तब इसके भावों की तीव्रता के अनुकूल द्रव्यकषाय की उदीरणा हो जाती है - यही बुद्धिपूर्वक किया जाने वाला रागद्वेष है।
सम्यग्दृश्टि जीवों के भी गुणस्थानों के अनुसार विकारी परिणाम होते रहते हैं। आत्मबल भी गुणस्थानों के अनुसार ही प्रकट होता है। जीव की जो राग-परिणति होती है, वहाँ यथानुकूल कर्म का उदय भी रहता है। बुद्धिपूर्वक राग को करने या न करने के लिये तो यह जीव स्वतन्त्र है। परन्तु, परपदार्थ का बुद्धिपूर्वक अवलम्ब जब यह नहीं लेता, तब भी गुणस्थान के अनुसार इसकी जो राग-परिणति रहेगी उसे ही अबुद्धिपूर्वक उदय कहा जाता है।
(ख) दूसरे प्रकार का निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध इस जीव का
अन्य पदार्थों की पर्यायों के साथ होता है। यहाँ यह जीव स्वतन्त्र है कि वह चाहे तो परपदार्थ का अवलम्ब ले अथवा न ले। परपदार्थ के निकट सान्निध्य में उपस्थित होते हुए भी, तथा उस परपदार्थ में अमुक व्यक्ति के विवक्षित कार्य का निमित्तपना होते हुए भी (निमित्तत्व के सामान्य-कथन के अनुसार), वह परपदार्थ उस व्यक्ति–वि श के लिये तब तक निमित्त नहीं हो सकेगा जब तक कि वह व्यक्ति उसका सही रूप से अवलम्बन नहीं लेता।