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बदलती अवस्थाएं, पर्यायें या विशेष पर्यायार्थिक नय या पर्यायदृष्टि के विषय हैं। इस प्रकार, ये दोनों ही प्रतिपक्षी नय अथवा दृष्टियां वस्तु के सामान्य और विशेष, इन सम्पूरक (complementary) अंशों में से किसी एक को इसको या उसको- लक्ष्य करती हैं। जबकि, प्रमाण (जो कि इस या उस नय अथवा दृष्टि के पक्ष से रहित होता है) सम्पूर्ण वस्तु को सामान्य–विशेषात्मक अथवा द्रव्य - पर्यायात्मक वस्तु को - लक्ष्य करता है; प्रमाण का विषय सम्पूर्ण अथवा सर्वदेश वस्तु है, आंशिक वस्तु नहीं। और, हम सभी जानते हैं कि प्रमाण ही सम्यग्ज्ञान है।
§ १.४
सामान्य
वस्तु के अस्तित्व में सामान्य और विशेष अंशों का अभेद • भेद केवल नयावलम्बी ज्ञान की अपेक्षा वस्तु चूंकि सामान्य-विशेषात्मक है, इसलिये सम्पूर्ण वस्तु का और विशेष, दोनों पक्षों का एक-साथ कथन किया जाना संभव नहीं है । एक पक्ष के कथन के बाद ही, दूसरे पक्ष का प्रतिपक्ष का कथन संभव है। इस प्रकार, यद्यपि सामान्य और विशेष का कथन अलग–अलग अथवा पहले-पीछे किया जाता है, तथापि वस्तु के अस्तित्व में सामान्य और विशेष, ये सम्पूरक अंश कहीं अलग-अलग अथवा पहले -पीछे नहीं हैं। वस्तु के अस्तित्व अथवा सत्ता में सामान्य और विशेष अंशों का न तो प्रदेश -भेद है और न ही समय-भेद । यद्यपि दो प्रतिपक्षी दृष्टियों के विषयभूत इन वस्तु - अंशों का ज्ञान अलग-अलग किया जाना संभव है (क्योंकि दोनों के स्वरूप अलग-अलग हैं), तो भी सामान्य और विशेष को अस्तित्व की अपेक्षा अलग-अलग नहीं किया जा सकता दोनों एक-समय हैं, एक-साथ हैं, और एक के बिना दूसरे वस्तु-अंश का अस्तित्व संभव नहीं है। वस्तुतः एक-के-बाद-एक होने वाले विभिन्न विशेषों में जो सातत्य (continuity), निरंतरता, एकता या समानता का भाव है, वही सामान्य है । जैसे मोतियों के हार में एक डोरा उसमें पिरोए गए अनेकानेक मोतियों में सभी मोतियों में निरंतर एक-रूप-से
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