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मौजूद होता है, उसी प्रकार वस्तु का सामान्य उसके सभी विशेषों में निरंतर एक-रूप-से विद्यमान वस्तु का स्वभाव है। यहां, दृष्टान्त और दार्टान्त में अन्तर भी उल्लेखनीय है। हार में सारे मोती एक साथ मौजूद हैं, जबकि वस्तु में विशेष एक-के-बाद-एक घटित हो रहे हैं - प्रत्येक विशेष एक-समयवर्ती है और सामान्य त्रिकालवर्ती। पुनश्च, डोरे और मोतियों की तरह, सामान्य और विशेषों के बीच प्रदेश-भेद भी नहीं है, जिसका खुलासा ऊपर किया ही जा चुका है।
६१.५ प्रतिपक्षी नय से सापेक्ष दृष्टि ही सम्यक्
जबकि निरपेक्ष दृष्टि मिथ्या साधक को लक्ष्य करके प्रयोजनव । जब आत्म-वस्तु के स्वरूप का कथन किया जाता है तब "वस्तु का जो सामान्य-अं । या सामान्यत्व है वह निश्चय है, क्योंकि वह त्रिकाल एकरूपसे रहने वाला है; और वस्तु का जो वि रोष-अं | या विशेषत्व है वह व्यवहार है, क्योंकि वह प्रतिसमय बदलने वाला है" - ऐसा कहा जाता है। तथापि, वस्तु के अस्तित्व में तो न कोई पक्ष मुख्य है, न कोई पक्ष गौण। तत्त्व के जिज्ञासु को इस प्रकार, सर्वप्रथम, दोनों प्रतिपक्षी दृष्टियों से अविरुद्ध वस्तु-स्वरूप का सम्यक् निर्णय करना चाहिये। आत्म-वस्तु के मात्र सामान्य अंश का अथवा मात्र विशेष अंश का ज्ञान और श्रद्धान कभी भी सम्पूर्ण वस्तु का ज्ञान–श्रद्धान नहीं हो सकता। सामान्य का ज्ञान वस्तुतः विशेष के ज्ञान बिना अधूरा है, सम्यक् नहीं है; और, इसी प्रकार, विशेष का ज्ञान भी सामान्य के ज्ञान बिना अधूरा है, सम्यक नहीं है। दोनों ही अलग-अलग, अर्थात् एक-दूसरे से निरपेक्ष होकर सही/सम्यक नहीं हो सकते। द्रव्यदृष्टि के विषयभूत वस्तु-अंश के ज्ञान बिना पर्यायदृष्टि के विषय का ज्ञान मिथ्या है - ऐसा ज्ञान अथवा उसका स्वामी जीव 'पर्यायमूढ़ है। इसी प्रकार, पर्यायदृष्टि के विषयभूत वस्तु-अंश के ज्ञान बिना द्रव्यदृष्टि के विषय का ज्ञान मिथ्या है - ऐसा ज्ञान अथवा उसका स्वामी जीव 'द्रव्यमूढ़' है।