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जीववस्तु-विशेष हैं तथा द्रव्यास्रव-बन्ध आदि पुद्गलवस्तु-विशेष हैं। जबकि जीव व अजीव, ये दो तत्त्व, क्रमशः जीव/आत्मवस्तु-सामान्य और पुद्गलवस्तु-सामान्य के द्योतक हैं।
इस प्रकार, सर्वप्रथम आगम के माध्यम से प्रमाणभूत वस्तु की जानकारी करनी है, निर्णयात्मक ज्ञान करना है - यह सामान्यज्ञान कहलाता है। अब निज-वस्तु की तीव्ररुचिपूर्वक अपने उपयोग को पर-वस्तुओं से हटाकर स्व-सम्मुख करते हुए आत्म-वस्तु को उसीरूप देखना है, अनुभवन करना है। जैसा कि ज्ञान के द्वारा निर्णय किया था, वैसी ही प्रमाणभूत - द्रव्यपर्यायात्मक/ सामान्यविशेषात्मक निज-वस्त जब अनभव में आ जाती है, तब सही/सम्यक श्रद्धान घटित होता है। सही श्रद्धा होने पर वह पहले वाला सामान्यज्ञान ही अब सम्यग्ज्ञान नाम पाता है।
तदनन्तर, जब आत्मा अपने उपयोग को परवस्तुओं से हटाकर (उसके हेतु परपदार्थों का आश्रय/अवलम्ब छोड़कर, अर्थात् स्वावलम्बी होते हुए) निजोपयोग को स्व-सम्मुख करते हुए पुनः पुनः निजानुभवन में उतरता है, तब इसके रागरूप परिणमन का क्रमशः अभाव होने से द्रव्यकर्मोदयरूपी निमित्त का भी क्रमशः अभाव होने लगता है। अन्ततः रागद्वेष का समूल नाश होने पर केवल स्वभाव-भाव रह जाता है; अतः उक्त रीति से रागादि के नाश के हेतु सम्यक् उद्यम करना ही समीचीन मोक्षमार्ग है।
६१.१३ अध्यात्म और चरणानुयोग
की मैत्री अथवा एकता 'पर-वस्तु तो पर ही है, वह कभी हमारी हो नहीं सकती' यद्यपि यह कथन सत्य है, तथापि जब तक पर के साथ इस जीव का सम्पर्क है, तब तक उस वस्तु का अवलम्बन लेकर यह जीव विकल्प उठाया करता है। कर्मबन्ध भी परवस्तु के कारण नहीं होता, बल्कि अपने विकल्पों के कारण ही होता है। जीव को दुःख-सुख भी अपने विकल्पों से ही होते हैं। परन्तु, विकल्प चूंकि परवस्तु का आश्रय लेकर ही होते हैं, अतः विकल्पों