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________________ '204 धर्म और समाज या रुकावट खड़ी होती है और अशक्य रूढ़ आचारोंमें रसवृत्ति उत्पन्न होनेके बजाय हमेशाके लिए उनसे अरुचि हो जाती है। मेरी दृष्टि से प्रत्येक संस्थामै उपस्थित होनेवाले धार्मिक शिक्षाके प्रश्नका हल यह हो सकता है (1) प्रत्येक क्रियाकाण्डी अथवा रूढ़ शिक्षा ऐच्छिक हो, अनिवार्य नहीं / (2) जीवन के सौरभके समान सदाचरणकी शिक्षा शब्दोंसे देने में ही सन्तोष नहीं मानना चाहिए और ऐसी शिक्षाकी सुविधा न हो, तो उस विषयमें मैना रहकर ही सन्तोष करना चाहिए / (3) ऐतिहासिक तुलनात्मक दृष्टिसे धर्मतत्त्वके मूलभूत सिद्धान्तोंकी शिक्षाका विद्यार्थियोंकी योग्यताके अनुसार श्रेष्ठतम प्रबंध होना चाहिए। जिस विषयमें किसीका मतभेद न हो, जिसका प्रबंध संस्था कर सकती हो और जो 'भिन्न भिन्न सम्प्रदायोंकी मान्यताओंको मिलानेमें सहायक तथा उपयोगी हो और साथ ही साथ मिथ्या भ्रमोंका नाश करनेवाली हो वही शिक्षा संस्थाओं के लिए उपयोगी हो सकती है। अनु०-मोहनलाल मेहता विद्याकी चार भूमिकाएँ * भाइयो और बहनो, आप लोगों के सम्मुख बोलते समय यदि मैं प्रत्येक व्यक्तिका चेहरा देख सकता या शब्द सुनकर भी सबको पहचान सकता तो मुझे बड़ा सुमीता होता। मुपद्धतिसे अथवा वैज्ञानिक ढंगसे काम करने की जैसी शिक्षा आपको मिली है. वैसी मुझे नहीं मिली, इसलिए मुझे बिना शिक्षाके इधर-उधर भटकते हुए जो मार्ग दिखाई दे गया, उसीके विषय में कुछ कहना है। जिस व्यक्ति ने अन्य मार्ग देखा ही न हो और जो पगडंडी मिल गई उसीसे जंगल पार किया हो वह केवल अपनी पगडंडीका ही वर्णन कर सकता है। इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि दूसरी पगडण्डियाँ हैं ही नहीं, अथवा हैं तो उससे घटिया या हीन हैं / दूसरी पगडंडियाँ उससे भी श्रेष्ठ हो सकती हैं / फिर __ * गुजरातविद्यासभाकी अनुस्नातक विद्यार्थी-सभाके अध्यापकों और छात्रों के समक्ष 1947 के पहले सत्रमें दिया हुआ मंगल प्रवचन ।—'बुद्धिप्रकाश' से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229220
Book TitleDharmik Shiksha ka Prashna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherZ_Dharma_aur_Samaj_001072.pdf
Publication Year1951
Total Pages6
LanguageHindi
ClassificationArticle & Education
File Size307 KB
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