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________________ धार्मिक शिक्षाका प्रश्न ------ जीवनको वैसा ही बनाना चाहिए और यदि वे ऐसा नहीं कर सकते हों तो उन्हें अपनी संतति के जीवन में सदाचरण लानेकी आशा नहीं करनी चाहिए । कोई भी संस्था किरायेके नकली शिक्षक रखकर विद्यार्थियों में सदाचारका बातावरण उत्पन्न नहीं कर सकती । यह व्यवहारका विषय है और व्यवहार सच्चा या झूठा देखादेखीमेंसे उत्पन्न होनेके बाद ही विचारके या संस्कार के गहरे प्रदेश तक अपनी जड़ें पहुँचाता है । धर्म- शिक्षा का दूसरा अंश विचार है- ज्ञान है । कोई भी संस्था अपने विद्यार्थियोंमें विचार और ज्ञान के अंश सिंचित और पोषित कर सकती है । इस तरह प्रत्येक संस्थाके लिए राजमार्गके रूपमें धार्मिक शिक्षाका एक ही विषय बाकी रहता है और वह है ज्ञान तथा विचारका । २०३ इस अंशके लिए संस्था जितना उदात्त प्रबंध करेगी उतनी सफलता अवश्य मिलेगी । प्रत्येक विद्यार्थीको जाननेकी कम या अधिक भूख होती ही है। उसकी भूखकी नाड़ी यदि ठीक ठीक परख ली जाय तो वह विशेष तेज भी की जा सकती है । इसलिए विद्यार्थियोंमें विविध प्रकारसे तत्त्व - जिज्ञासा पैदा करनेका आयोजन करना सस्थाका प्रथम कर्तव्य है । इस आयोजन में समृद्ध पुस्तकालय: और विचारपूर्ण विविध विषयोंपर व्याख्यानोंका प्रबंध आवश्यक है। साथ ही सम्पूर्ण आयोजनका केन्द्र ज्ञान और विचारमूर्ति शिक्षक और उसकी सर्वग्राहिणी और प्रतिक्षण नवनवताका अनुभव करनेवाली दृष्टि भी चाहिए। जो संस्था ऐसे शिक्षकको प्राप्त करनेका सौभाग्य प्राप्त करती है उस सस्थामें ऐसी धर्मशिक्षा अनिवार्य रूपसे फैलेगी और बढ़ेगी ही, जो विचार करने के लिए काफी होती है । करनेकी बात आनेपर विद्यार्थी जरा-सा कष्टका अनुभव करता है किन्तु जाननेका प्रश्न सामने आनेपर उसका मस्तिष्क अनुकूल शिक्षकके सन्निधान में जिज्ञासाको लिए हुए हमेशा तैयार रहता है । प्रतिभाशाली अध्यापक ऐसे अवसर से लाभ उठाता है और विद्यार्थी में उदार तथा व्यापक विचारोंके बीजोंका वपन करता है । संस्थाएँ धार्मिक शिक्षाका आयोजन करके भी वास्तवमें जो विद्यार्थीके लिए करना चाहिए, उस कार्यको पूर्ण नहीं करतीं और जिस धार्मिक कहे जानेवाले अंश विद्यार्थीको अथवा स्वयं शिक्षकको रस नहीं होता उस अंशपर परम्परा मोहके कारण अथवा अमुक वर्गके अनुसरण के कारण भार देकर दोनों चीजें खो देती हैं। शक्य विचारांशकी जागृति में बाधा पहुँचती है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229220
Book TitleDharmik Shiksha ka Prashna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherZ_Dharma_aur_Samaj_001072.pdf
Publication Year1951
Total Pages6
LanguageHindi
ClassificationArticle & Education
File Size307 KB
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