________________ आस्तिक और नास्तिक कि कीचड़ कीचड़से साफ नहीं किया जा सकता, वह तो पानीसे ही धोया जा सकता है। तीसरा यह कि जब कोई हमारे मत और विचारके विरुद्ध आवेश या शान्तिसे कुछ भी कहता है तो उसके कथनपर सहानुभूतिसे विचार करना चाहिए। अगर सामनेवालेके आवेशपूर्ण कथनमें भी सत्य मालूम होता हो तो चाहे जितना प्रचण्ड विरोध होते हुए भी और चाहे जितनी जोखम उठाकर भी नम्र भावसे उसे स्वीकार करना और उसीमें दृढ़ रहना चाहिए। अगर इसी भाँति विचार और वर्तन रक्खा जायगा तो शब्दोंके प्रहार-प्रति-प्रहारका विष कम हो जायगा / भाषा-समिति और वचन-गुप्तिकी जो प्रतिष्ठा करीब करीब लुप्त होती जा रही है वह वापस जमेगी और शान्तिका वातावरण उत्पन्न होगा / इन पुण्य दिनोंमें हम इतना ही चाहें / * [ तरुण जैन, अक्टूबर 1941 ] * मूल गुजरातीमें / अनुवादक श्री भँवरमलजी सिंघी / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org