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________________ १२८ स्त्रीमुक्ति, अन्यतैर्थिकमुक्ति एवं सवस्त्रमुक्ति का प्रश्न भावस्त्री न होकर द्रव्यस्त्री ही है और यदि आगमानुसार मनुष्यनी में चौदह गुणस्थान सम्भव हैं तो फिर उसकी मुक्ति भी सम्भव है। इस प्रकार यापनीय परम्परा आगमिक आधारों पर स्त्रीमुक्ति की समर्थक रही है। अन्यतैर्थिक और गृहस्थमुक्ति का प्रश्न स्त्रीमुक्ति के साथ-साथ दो अन्य प्रश्न भी जुड़े हुए हैं, वे हैं अन्यतैर्थिक की मुक्ति एवं सवस्त्रमुक्ति ( गृहस्थमुक्ति )। यह स्पष्ट है कि उत्तराध्ययन जैसे प्राचीन जैन आगमों में स्त्रीमुक्ति के साथ-साथ अन्यतैर्थिकों ( अन्य लिंग ) और गृहस्थों की मुक्ति को भी स्वीकार किया गया है। उनकी मान्यता यह थी कि व्यक्ति चाहे किसी अन्य परम्परा में दीक्षित हुआ हो या गृहस्थ ही हो, यदि वह समभाव की साधना में पूर्णता प्राप्त कर लेता है, राग-द्वेष से ऊपर उठकर वीतरागदशा को प्राप्त हो जाता है, तो वह अन्य तैर्थिक या गृहस्थ के वेश में भी मुक्ति को प्राप्त हो सकता है। उत्तराध्ययनसूत्र में शरीर की अपेक्षा से स्त्री, पुरुष एवं नपुसंक की तथा वेश की अपेक्षा से स्वलिंग ( निर्ग्रन्थ मुनिवेश ), अन्य लिंग ( तापस आदि अन्यतैर्थिक के वेश में ) एवं गृहीलिंग ( गृहस्थवेश ) से मुक्ति की सम्भावना को स्वीकार किया गया है। सूत्रकृतांग में नमि, बाहुक, असितदेवल, नारायण आदि ऋषियों के द्वारा अन्य परम्परा के आचार एवं वेशभूषा का अनुसरण करते हुए भी सिद्धि प्राप्त करने का स्पष्ट उल्लेख है। ऋषिभाषित में औपनिषदिक, बौद्ध एवं अन्य श्रमण-परम्परा के ऋषियों को अर्हत् ऋषि कहकर सम्मानित किया गया है। २४ वस्तुत: मुक्ति का सम्बन्ध आत्मा की विशुद्धि से है। उसका बाह्य देश या स्त्री-पुरुष आदि के शरीर से कोई सम्बन्ध नहीं है। श्वेताम्बर आचार्य हरिभद्र कहते हैं कि व्यक्ति चाहे श्वेताम्बर हो, दिगम्बर हो, बौद्ध या अन्य किसी धर्मपरम्परा का हो, यदि वह समभाव से युक्त है तो मुक्ति अवश्य प्राप्त करेगा।२५ चूँकि यापनीय भी आगमिक परम्परा के अनुयायी थे, अत: यापनीय शाकटायन ने इस सम्बन्ध में आगम-प्रमाण का उल्लेख किया है। वे स्त्रीमुक्ति के साथ-साथ अन्यतैर्थिक की मुक्ति के भी समर्थक थे। किन्तु जब अचेलता को ही एकमात्र मोक्ष-मार्ग स्वीकार करके मूच्छदि भावपरिग्रह के साथ-साथ वस्त्र-पात्रादि द्रव्यपरिग्रह का भी पूर्ण त्याग आवश्यक मान लिया गया तो यह स्वाभाविक ही था कि स्त्रीमुक्ति के निषेध के साथ ही साथ अन्यतैर्थिक और गृहस्थों की मुक्ति का भी निषेध कर दिया जाय। दिगम्बर परम्परा में चूँकि अचेलता को ही एकमात्र मोक्षमार्ग माना गया था, इसलिये उसने यह माना कि अन्यतैर्थिक या गृहस्थवेश में कोई भी व्यक्ति मुक्त नहीं हो सकता। इसके विपरीत श्वेताम्बर और यापनीय दोनों ही स्पष्ट रूप से यह मानते रहे कि यदि व्यक्ति की रागात्मकता या ममत्व वृत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229145
Book TitleStreemukti Anyatairthikmukti evam Savastramukti ka Prashna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_3_001686.pdf
Publication Year1997
Total Pages20
LanguageHindi
ClassificationArticle & Nine Tattvas
File Size541 KB
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