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________________ स्त्रीमुक्ति, अन्यतैर्थिकमुक्ति एवं सवस्त्रमुक्ति का प्रश्न १२७ ।। नहीं है। व्यवहार में बाह्य शरीर रचना के आधार पर ही निर्णय लिये जाते हैं। समलैंगिक कामप्रवृत्ति या पशु-मनुष्य काम-प्रवृत्ति वस्तुतः अप्राकृतिक मैथुन या विकृत कामवासना के रूप हैं। शरीर-रचना से भिन्न वेद ( कामवासना ) का उदय नहीं है। अत: मनुष्यनी शब्द का अर्थ स्तन, योनि आदि से युक्त मनुष्यनी ( मानव स्वी ) ही है, न कि स्त्री सम्बन्धी कामवासना से युक्त पुरुष। पुनः इस कथन का कोई प्रमाण भी नहीं है कि पुरुष शरीर-रचना से स्त्रैण कामवासना का उदय होता है। ऐसी स्थिति में यह भी मानना होगा कि स्त्री-शरीर में भी पुरुष सम्बन्धी कामवासना अर्थात् स्त्री को भोगने की इच्छा उत्पन्न होती होगी। ज्ञातव्य है कि जैन परम्परा में वेद और लिंग अलग-अलग शब्द रहे हैं। लिंग का तात्पर्य शारीरिक संरचना अथवा बाह्य चिह्नों से होता है जबकि वेद का तात्पर्य कामवासना सम्बन्धी मनोभावों से होता है। सामान्यतया जैसी शरीर-रचना होती है, तद्प ही वेद अर्थात् कामवासना का उदय होता है। यदि किसी व्यक्ति में अपनी शरीर-रचना से भिन्न प्रकार की कामवासना पाई जाती है तो यह मानना होगा कि उस व्यक्ति में पुरुष और स्त्री अर्थात् दोनों प्रकार की कामवासना है। परन्तु आगम की दृष्टि से ऐसा व्यक्ति नपुंसकलिंगी कहा गया है। जैन-परम्परा में नपुंसक शब्द का तात्पर्य पुरुषत्व से हीन अर्थात् स्त्री का भोग करने में असमर्थ व्यक्ति, ऐसा नहीं है। जैन परम्परा के अनुसार नपुंसक वह है, जिसमें उभयलिंग की कामवासनाएँ उपस्थित हों। पन: शाकटायन का यह भी कहना है कि यदि किसी पुरुष का काम-व्यवहार दूसरी स्त्री के साथ पुरुषवत् हो तो यह उसकी अपनी विकृत कामवासना का ही रूप है। कभी-कभी तो मनुष्य पशुओं से भी अपनी कामवासना की पूर्ति करते हुए देखे जाते हैं। क्या ऐसी स्थिति में हम यह मानेंगे कि उसमें पशु सम्बन्धी कामवासना है? वस्तुतः यह उसकी अपनी कामवासना का ही एक विकृत रूप है। पुन: यदि यह कहा जाय कि आगम में विगत वेद (भवों) की अपेक्षा से स्त्री में चौदह गुणस्थान माने गए हैं तो फिर तो विगत भव की अपेक्षा से देव में भी चौदह गुणस्थान सम्भव होंगे, किन्तु आगम में उनमें तो चौदह गुणस्थान नहीं कहे गए हैं। वस्तुत: आगम में जो मनुष्यनी में चौदह गुणस्थानों की सम्भावना स्वीकार की गई है, वह स्त्री-वेद के आधार पर नहीं, अपितु स्त्रीलिंग (स्त्रीरूपी शरीर-रचना) के आधार पर ही है। आगम में गतिमार्गणा के सन्दर्भ में मनुष्यनी में पर्याप्त गुणस्थानों की चर्चा हुई है। अतः मनुष्यनी का अर्थ भावस्त्री अर्थात् स्त्रैण-वासना से युक्त पुरुष करना उपयुक्त नहीं है, क्योंकि भाव या वेद की चर्चा तो भिन्न अनुयोगद्वारों में की गई है। अतः आगम ( षट्खण्डागम ) में मनुष्यनी का अर्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229145
Book TitleStreemukti Anyatairthikmukti evam Savastramukti ka Prashna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_3_001686.pdf
Publication Year1997
Total Pages20
LanguageHindi
ClassificationArticle & Nine Tattvas
File Size541 KB
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