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Vol. [-1995
जैन महापुराण में ब्राह्मणाय...
अंकन प्रारम्भ हुआ। दिगम्बर सम्प्रदाय की अपेक्षा श्वेताम्बर सम्प्रदाय में सरस्वती पूजन अधिक लोकप्रिय था । यही कारण है कि बादामी, ऐहोळ एवं एलोरा जैसे दिगम्बर जैन स्थलों पर सरस्वती की मूर्तियाँ उत्कीर्ण नहीं हुईं। पूर्व मध्यकाल में श्वेताम्बर सम्प्रदाय में शक्ति के रूप में सरस्वती की साधना की गई जिसमें आगे चलकर तन्त्र का भी प्रवेश हुआ।
जैन परम्परा की सरस्वती के लक्षण ब्राह्मण परम्परा की सरस्वती के समान हैं। दोनों ही परम्पराओं में सरस्वती के करों में पुस्तक, वीणा, अक्षमाला, सूक्, अंकुश तथा पाश जैसे आयुध प्रदर्शित हैं। हंस या मयूरवाहना सरस्वती की नवीं से १२वीं शती ई० के मध्य की अनेक मूर्तियाँ देवगढ़, खजुराहो, ओसियाँ, कुम्भारिया, देलवाड़ा, तारंगा, जिननाथपुर, हुम्मच, हलेबिड जैसे स्थलों से प्राप्त हुई हैं।
जैन देवकुल में गंगा का उल्लेख भी देवी के रूप में हुआ है। आदिपुराण में चक्रवर्ती भरत का गंगाजल से अभिषेक करने का उल्लेख मिलता है। पुष्पदन्त कृत महापुराण में गंगा को पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान मुखवाली, कमलनयनी, कमलों के समान चरणोंवाली, जिनेन्द्र का अभिषेक करनेवाली. सिर में फल गंथनेवाली. चंचल मक एवं अपने रूप यौवन से देवों को आश्चर्य में डाल देनेवाली बताया गया है। पद्म को ही उनका छत्र एवं वस्त्र माना गया है।
प्रस्तुत अध्ययन से जैन धर्म में समन्वय की परम्परा के प्रमाण मिलते हैं। जैन महापुराण में शिव, विष्णु और ब्रह्मा के तीर्थंकरों के सन्दर्भ में नामोल्लेख एवं कुछ अन्य लक्षणपरक संकेत ९वीं-१०वीं शती ई० तक ब्राह्मण धर्म एवं कला में इन देवताओं के विशेष प्रतिष्ठा का प्रतिफल माना जा सकता है। यद्यपि तीर्थंकरों के प्रसंग में शिव, विष्णु
और ब्रह्मा एवं अन्य देवताओं के नामोल्लेख लगभग ५वीं शती ई० से ही मिलने लगते हैं। विमलसूरि कृत पउमचरिय (ईस्वी ४७३) इसका एक प्रमुख उदाहरण है। उपरोक्त सन्दर्भ से स्पष्ट है कि महापुराण वस्तुत: पूर्व में स्वीकृत समन्वय की अवधारणा को ही और व्यापक आधार में प्रस्तुत करता है। ऋषभनाथ और शिव के बीच नाम तथा अवधारणा की दृष्टि से दिखाई पड़नेवाली एकरूपता विशेष महत्त्वपूर्ण और ब्राह्मण तथा जैन धर्मों के अन्तर्सम्बन्धों का सूचक है। ऋषभनाथ एवं अन्य तीर्थंकरों के स्तवन में कुछ ऐसे स्वरूपगत विशेषताओं का संकेत देनेवाले विशेषणों का प्रयोग हुआ है जिनका तीर्थंकरों के स्वरूप से कोई सम्बन्ध नहीं जुड़ता। शिव एवं ब्रह्मा के विशिष्ट लक्षणों से जुड़े त्र्यम्बक, त्रयाक्ष, चतुरानन आदि कुछ ऐसे ही शब्द हैं।
संगीत एवं अप्सराओं से जुड़े इन्द्र की कल्पना में उनके नृत्य स्वरूप का उल्लेख परम्परासम्मत माना जा सकता है। बलराम, राम और कृष्ण के उल्लेख में आयुधों एवं लक्षणों का भी कुछ उल्लेख हुआ है जो विभिन्न स्थलों पर उनके रूपांकन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण और ब्राह्मण परम्परा के अनुरूप हैं। महापुराण में तीर्थंकरों के लांछनों, यक्ष-यक्षियों एवं ऐसे ही अन्य देवस्वरूपों के आयुधों, लक्षणों का उल्लेख कहीं नहीं हुआ है। सम्भवत: इसका कारण महापुराण का एक कथापरक ग्रन्थ होना है। फिर भी ब्राह्मण धर्म के साथ समन्वय एवं तत्कालीन चिन्तन की दृष्टि से इन पुराणों का विषय, विशेषतः ब्राह्मण देवताओं की चर्चा, विशेष महत्त्वपूर्ण और प्रासंगिक है।
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