Book Title: Jain Mahapuran me Bramhaniya Parampara ke Devi Devta
Author(s): Kamalgiri
Publisher: Z_Nirgrantha_1_022701.pdf and Nirgrantha_2_022702.pdf and Nirgrantha_3_022703.pdf

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Page 1
________________ जैन महापुराण में ब्राह्मणीय परम्परा के देवी-देवता कमल गिरि भारतीय संस्कृति के विश्वकोष-रूप पुराण साहित्य में कथाओं के माध्यम से तत्कालीन धार्मिक जीवन के साथ-साथ सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और कलापरक विषयों की भी विस्तारपूर्वक चर्चा मिलती है। ब्राह्मणीय और दाक्षिणात्य जैन, दोनों ही परम्पराओं में विपुल संख्या में पुराणों की रचना की गयी जिन्हें उत्तरकी जैन परम्परा में चरित या चरित्र कहा गया 1 जैन पुराणों में महापुराण सर्वाधिक विस्तृत एवं महत्त्वपूर्ण है, जो आदिपुराण (लगभग ८३७ ई०) और उत्तरपुराण (लगभग ८५० ई०) दो खण्डों में विभक्त है। इन पुराणों के कर्त्ता क्रमशः पञ्चस्तूपान्वय के आचार्य जिनसेन और उनके शिष्य गुणभद्र हैं। महापुराण में एक ओर जैनधर्म एवं परम्परा के मूलभूत तत्त्वों की निष्ठापूर्वक चर्चा की गयी है और दूसरी ओर उनके कर्ताओं के व्यापक चिन्तन के कारण वैदिक और ब्राह्मण परम्परा के साथ पूरा समन्वय स्थापित करने की भी चेष्टा की गयी है । इसी कारण महापुराण में ब्राह्मण एवं लौकिक परम्परा के सर्वमान्य देवी-देवताओं का अनेक स्थानों पर उल्लेख हुआ हैं। इन ग्रन्थों में शिव, ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, वैश्रवण, तथा राम, कृष्ण, श्री, बुद्धि, कीर्ति, अज्जा, (आर्या, पार्वती या चण्डि), तदुपरान्त लक्ष्मी, सरस्वती, गंगा तथा गन्धर्व, पितृ, नाग, लोकपाल जैसे देवी-देवताओं की चर्चा, और कभी-कभी उनके कुछ लक्षणों का भी निरूपण हुआ है जो नवीं शती ई० में ब्राह्मण और जैन धर्मों के सौहार्दपूर्ण अन्तर्सम्बन्धों का साक्षी है । महापुराण के अतिरिक्त अन्य जैन ग्रन्थों में भी ऐसे प्रचुर उल्लेख हैं । विशेषकर के उत्तर की जैन शिल्पशास्त्रीय परम्परा एवं मूर्त उदाहरणों में अष्टदिक्पाल, नवग्रह, क्षेत्रपाल तथा गणेश आदि का भी निरूपण किया गया। प्रस्तुत लेख में मुख्यतः जैन महापुराण में वर्णित ब्राह्मणीय देवी-देवताओं की चर्चा की गयी है। आदिपुराण के २४वें और २५ वें पर्वों में भरत और सौधर्मेन्द्र द्वारा ऋषभदेव के क्रमशः १०८ और १००८ नामों से स्तवन तथा पूजन की चर्चा है। इन नामों में सर्वाधिक ब्राह्मण धर्म के त्रिपुरुषदेव ( शिव, विष्णु एवं ब्रह्मा ) तथा कुछ अन्य से सम्बन्धित हैं। शिव के नामों में स्वयंभू, शंभु, शंकर, त्रिनेत्र, त्रिपुरारि, त्रिलोचन, शिव, भूतनाथ, विश्वमूर्ति, कामारि, महेश्वर, महादेव, मृत्युञ्जय, हर, अष्टमूर्ति, त्रयम्बक, त्रयक्ष, अर्धनारीश्वर, अधिकान्तक, सद्योजात, वामदेव, अघोर और ईशान मुख्य हैं । इस सन्दर्भ में पुष्पदन्त कृत अपभ्रंश महापुराण (१०वीं शताब्दी का पूर्वार्ध) का उल्लेख भी महत्त्वपूर्ण है जिसमें शिव से सम्बन्धित कुछ आयुधादि (कंकाल, त्रिशूल, नरमुण्ड, सर्प) का भी उल्लेख हुआ है । यहां विष्णु के नामों में जगन्नाथ, वामनदेव, लक्ष्मीपति और ब्रह्मा के नामों में ब्रह्मा, पितामह, धाता, विधाता, चतुरानन उल्लेखनीय हैं। अन्य प्रसंगों में हिरण्यगर्भ, इन्द्र ( महेन्द्र, सहस्राक्ष), सूर्य (आदित्य), कुबेर, राम एवं कृष्ण जैसे देवों तथा इन्द्राणी, लक्ष्मी, सरस्वती, गंगा, विन्ध्यवासिनी देवियों के नामोल्लेख और कभी-कभी लक्षण भी सन्दर्भगत पुराणों में मिलते हैं । आदिपुराण ऋषभनाथ के जीवनचरित से सम्बन्धित है जिसमें शिव के सर्वाधिक नामों के माध्यम से ऋषभ का स्तवन हुआ है जो प्राचीन परम्परा में शिव और ऋषभदेव के एकीकृत स्वरूप का संकेत देता है । शास्त्रीय परम्परा में ऋषभ के साथ जटा, वृषभ लाञ्छन और यक्ष के रूप • गाय के मुखवाले तथा परशुधारी गोमुख यक्ष की कल्पना से यह अन्तर्सम्बन्ध पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है । इसे मूर्त उदाहरणों में भी देखा जा सकता है। इसी प्रकार वैदिक वाक्य, महाभारत एवं पुराणों में शिव को अनेकशः ऋषभदेव नाम से सम्बोधित किया गया है । सम्भवतः शिव का महायोगी रूप ही जैन तीर्थंकर ऋषभदेव के सन्दर्भ में निरूपण का मुख्य आधार बना। शिव का व्यापक आधार महापुराण में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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