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________________ अपरिग्रह 521 पूर्वक परिग्रह की मर्यादा को संकुचित बनाने के संकल्प पर हमेशा भार देता अाया है। पर उस व्रत की यथार्थ आवश्यकता और उसका मूल्य जितना आज है, उतना शायद ही भूतकाल में रहा हो। आज का विश्वव्यापी संघर्ष केवल परिग्रहमूलक है / परिग्रह के मूल में लोभवृत्ति ही काम करती है। इस वृत्ति पर ऐच्छिक अंकुश या नियन्त्रण बिना रखे न तो व्यक्ति का उद्धार है न समाज का और न राष्ट्र का / लोभ वृत्ति के अनियन्त्रित होने के कारण ही देश के अन्दर तथा अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में खींचातानी व युद्ध की आशंका है, जिसके निवारण का उपाय सोचने के लिए प्रस्तुत सम्मेलन हो रहा है। इसलिए जैन परम्परा का प्रथम और सर्वप्रथम कर्तव्य तो यही है कि वह परिग्रह-परिमाण व्रत का श्राधुनिक दृष्टि से विकास करे / सामाजिक, राजकीय तथा आर्थिक समस्याओं के निपटारे का अगर कोई कार्यसाधक अहिंसक इलाज है तो वह ऐच्छिक अपरिग्रह व्रत या परिग्रह-परिमाण व्रत ही है। __ अहिंसा को परम धर्म माननेवाले और विश्व शांतिवादी सम्मेलन के प्रति अपना कुछ-न-कुछ कर्तव्य समझकर उसे अदा करने की वृत्तिवाले जैनों को पुराने परिग्रह-परिमाण व्रत का नीचे लिखे माने में नया अर्थ फलित करना होगा और उसके अनुसार जीवन व्यवस्था करनी होगी। (1) जिस समाज या राष्ट्र के हम अंग या घटक हो उस सारे समाज या राष्ट्र के सर्वसामान्य जीवन धोरण के समान ही जीवन धोरण रखकर तदनुसार जीवन की आवश्यकताओं का घटना या बढ़ना / (2) जीवन के लिए अनिवार्य जरूरी वस्तुओं के उत्पादन के निमित्त किसीन-किसी प्रकार का उत्पादक श्रम किए बिना ही दूसरे के वैसे श्रमपर, शक्ति रहते हुए भी, जीवन जीने को परिग्रह-परिमाण व्रत का बाधक मानना / (3) व्यक्ति की बची हुई या संचित सब प्रकार की सम्पत्ति का उत्तराधिकार उसके कुटुम्ब या परिवार का उतना ही होना चाहिए जितना समाज या राष्ट्र का / अर्थात् परिग्रह-परिमाण व्रत के नए अर्थ के अनुसार समाज तथा राष्ट्र से पृथक् कुटुम्ब परिवार का स्थान नहीं है / ये तथा अन्य ऐसे जो जो नियम समय-समय की आवश्यकता के अनुसार राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय हित की दृष्टि से फलित होते हों, उनको जीवन में लागू करके गांधीजी के राह के अनुसार औरों के सामने सबक उपस्थित करना यही हमारा विश्व शान्तिवादी सम्मेलन के प्रति मुख्य कर्चव्य है ऐसी हमारी स्पष्ट समझ है। ई० 1646 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229079
Book TitleVishwa Shantiwadi Sammelan aur Jain Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherZ_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf
Publication Year1957
Total Pages14
LanguageHindi
ClassificationArticle, Tithi, Devdravya, & History
File Size192 KB
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