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________________ ५२० जैन धर्म और दर्शन यद्यपि शस्त्र धारण के द्वारा सामाजिक हित के रक्षाकार्य का अहिंसा के आत्यन्तिक समर्थन के साथ मेल बिठाना सरल न था पर गांधीजी के पहिले ऐसा कोई अशस्त्र युद्ध का मार्ग खुला भी न था । अतएव जिस रास्ते श्रन्य जनता जाती रही उसी रास्ते जैन जनता भी चली । परन्तु गांधीजी के बाद तो युद्ध का कर्मक्षेत्र सच्चा धर्मक्षेत्र बन गया। गांधीजी ने अपनी अपूर्व सूझ से ऐसा मार्ग लोगों के सामने रखा जिसमें वीरता की पराकाष्ठा जरूरी है और सो भी शस्त्र धारण बिना किए ही । जब ऐसे अशस्त्र प्रतिकार का अहिंसक मार्ग सामने आया तब वह जैन परम्परा के मूलगत अहिंसक संस्कारों के साथ सविशेष संगत दिखाई दिया । यही कारण है कि गांधीजी की अहिंसामूलक सभी प्रवृत्तियों में जैन स्त्रीपुरुषों ने अपनी संख्या के अनुपात से तुलना में अधिक ही भाग लिया और अाज भी देश के कोने-कोने में भाग ले रहे हैं। गांधीजी की अहिंसा की रचनात्मक अमली सूझ ने अहिंसा के दिशाशून्य उपासकों के सामने इतना बड़ा आदर्श और कार्यक्षेत्र रखा है जो जीवन की इसी लोक में स्वर्ग और मोक्ष की आकांक्षा को सिद्ध करने वाला है। अपरिग्रह व परिग्रह-परिमाण व्रत प्रस्तुत शान्तिवादी सम्मेलन जो शान्तिनिकेतन में गांधीजी के सत्य अहिंसा के सिद्धान्त को वर्तमान अति संघर्षप्रधान युग में अमली बनाने के लिए विशेष ' ऊहापोह करने को मिल रहा है, उसमें अहिंसा के विरासती संस्कार धारण करने वाले हम जैनों का मुख्य कर्तव्य यह है कि अहिंसा की साधना की हरएक बाजू में भाग लें । और उसके नवीन विकास को अपनाकर अहिंसक संस्कार के स्तर को ऊँचा उठावें। परन्तु यह काम केवल चर्चा या मौखिक सहानुभूति से कभी सिद्ध नहीं हो सकता । इसके लिए जिस एक तत्त्व का विकास करना जरूरी है वह है अपरिग्रह या परिग्रह-परिमाण व्रत । उक्त व्रत पर जैन परम्परा इतना अधिक भार देती आई है कि इसके बिना अहिंसा के पालन को सर्वथा असम्भव तक माना है। त्यागिवर्ग स्वीकृत अपरिग्रह की प्रतिज्ञा को सच्चे अर्थ में तब तक कभी पालन नहीं कर सकते जब तक वे अपने जीवन के अंग प्रत्यंग को स्वावलम्बी और सादा न बनावे । पुरानी रूढ़ियों के चक्र में पड़कर जो त्याग तथा सादगी के नाम पर दूसरों के श्रम का अधिकाधिक फल भोगने की प्रथा रूढ़ हो गई है उसे गांधीजी के जीवित उदाहरण द्वारा हटाने में व महावीर की स्वावलम्बी सच्ची जीवन प्रथा को अपनाने में आज कोई संकोच होना न चाहिए । यही अपरिग्रह व्रत का तात्पर्य है। जैन परम्परा में गृहस्थवर्ग परिग्रह-परिमाण व्रत पर अर्थात् स्वतन्त्र इच्छा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229079
Book TitleVishwa Shantiwadi Sammelan aur Jain Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherZ_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf
Publication Year1957
Total Pages14
LanguageHindi
ClassificationArticle, Tithi, Devdravya, & History
File Size192 KB
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