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जैन धर्म और दर्शन . 'यस्मादागामिभवायुर्वध्वा नियन्ते सर्व एव देहिनः तच्चाहार-शरीरेन्द्रियप्राप्तिपर्याप्तानामेव बध्यत इति'
' अर्थात् सभी प्राणी अगले भव की आयु को बाँधकर ही मरते हैं, बिना बाँधे नहीं मरते । श्रायु तभी बाँधी जा सकती है, जब कि आहार, शरीर और इन्द्रिय, ये तीन पर्याप्तियाँ पूर्ण बन चुकी हों। - इसी बात का खुलासा श्रीविनयविजयजी ने लोकप्रकाश, सग ३, श्लो. ३१ में इस प्रकार किया है--जो जीव लब्धि अपर्याप्त है, वह भी पहली तीन पर्याप्तियों को पूर्ण करके ही अग्रिम भव की आयु बाँधता है । अन्तमुहूर्त तक आयु. बन्ध करके फिर उसका जघन्य अवधाकाल, जो अन्तर्मुहूर्त का माना गया है, उसे वह बिताता है; उसके बाद मर कर वह गत्यन्तर में जा सकता है। जो अग्रिम आयु को नहीं बाँधता और उसके अबाधाकाल को पूरा नहीं करता, वह मर ही नहीं सकता।
दिगम्बर-साहित्य में करण-अपर्याप्त के बदले 'निवृत्ति अपर्याप्तक' शब्द मिलता है । अर्थ में भी थोड़ा सा फर्क है । 'निवृत्ति' शब्द का अर्थ शरीर ही किया हुआ है । अतएव शरीरपर्याप्तिपूर्ण न होने तक ही दिगम्बरीय साहित्य, जीव को निर्वति अपर्याप्त कहता है ! शरीर पयाप्तिपूर्ण होने के बाद वह, निवृत्ति-अपयर्यात का व्यवहार करने की सम्मति नहीं देता । यथा---
'पजत्तस्स य उदये, णियणियपज्जत्तिणिहिदो होदि । जाव सरीरमपुर णिव्वत्तिअपुण्ांगो ताव ॥१२०॥'
-जीवकाण्ड । सारांश यह कि दिगम्बर-साहित्य में पर्याप्त नाम कर्म का उदय वाला ही शरीर-पर्याप्ति पूर्ण न होने तक 'निवृत्ति-अपर्याप्त' शब्द से अभिमत है ।
परन्तु श्वेताम्बरीय साहित्य में 'करण' शब्द का शरीर इन्द्रिय श्रादि पर्याप्तियाँ'-- इतना अर्थ किया हुआ मिलता है । यथा-- ___ 'करणानि शरीराक्षादीनि।'
-लोकप्र०, स० ३, श्लो० १० । श्रतएव श्वेताम्बरीय सम्प्रदाय के अनुसार जिसने शरीर-पर्याप्ति पूर्ण की है, पर इन्द्रिय-पर्याप्ति पूर्ण नहीं की है, वह भी 'करण-पर्याप्त' कहा जा सकता है । अर्थात शरीर रूप करण पूर्ण करने से 'करण-पर्याप्त और इन्द्रिय रूप करण पूर्ण न करने से 'करण-अपर्याप्त' कहा जा सकता है । इस प्रकार श्वेताम्बरीय
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