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पर्याप्त
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इस विषय का विशेष विचार तत्त्वार्थ श्र० २, सू० २५ वृत्ति, नन्दी सू० ३६, विशेषावश्यक गा० ५०४-५२६ और लोकप्र०, स० ३, श्लो० ४४२-४६३ में है । -शी के व्यवहार के विषय में दिगम्बर-सम्प्रदाय में श्व ेताम्बर को अपेक्षा थोड़ा सा भेद है । उसमें गर्भज - तिर्यञ्चों को संज्ञीमात्र न मानकर संझी तथा असंज्ञी माना है । इसी तरह संमूच्छिग तिर्यञ्च को सिर्फ संशी न मानकर संज्ञी - श्रसंज्ञी उभयरूप माना है । ( जीव०, गा० ७६ ) इसके सिवाय यह बात ध्यान देने योग्य है कि श्वेताम्बर-ग्रन्थों में हेतुवादोपदेशिकी यदि जो तीन संज्ञाएँ वर्णित हैं, उनका विचार दिगम्बरीय प्रसिद्ध ग्रन्थों में दृष्टिगोचर नहीं होता ।
( ४ ) 'अपर्याप्त '
(क) अपर्याप्त के दो प्रकार हैं: --- (१) लब्धि- अपर्याप्त और (२) करण पर्याप्त वैसे ही (ख) पर्यास के भी दो भेद हैं: - (१) लब्धि पर्याप्त और ( २ ) करण- पर्याप्त । (क) १ - जो जीव, अपर्याप्तनामकर्म के उदय के कारण ऐसी शक्तिवाले हों, जिससे कि स्वयोग्य पर्यातियों को पूर्ण किये बिना ही मर जाते हैं, वे 'लब्धिपर्याप्त हैं।
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२- परन्तु करण - अपर्याप्त के विषय में यह बात नहीं, वे पर्यासनामकर्म के भी उदयवाले होते हैं । अर्थात् चाहे पर्यासनामकर्म का उदय हो या पर्याप्तनामकर्म का, पर जब तक करणों की (शरीर, इन्द्रिय आदि पर्याप्तियों की) समाप्ति न हो, तब तक जीव 'करण पर्याप्त' कहे जाते हैं ।
(ख) १ – जिनको पर्याप्तनामकर्म का उदय हो और इससे जो स्वयोग्य पर्यातियों को पूर्ण करने के बाद ही मरते हैं, पहले नहीं, वे 'लब्धि पर्याप्त' हैं ।
२ – करण पर्याप्तों के लिए यह नियम नहीं कि वे स्वयोग्य पर्याप्तियोंको पूर्ण करके ही मरते हैं । जो लब्धि अपर्याप्त हैं, वे भी करण पर्याप्त होते ही हैं; क्योंकि
हारपर्याप्त बन चुकने के बाद कम से कम शरीरपर्याप्ति बन जाती है, तभी से जीव 'करण-पर्यास' माने जाते हैं । यह तो नियम ही है कि लब्धि अपर्याप्त भी कम से कम प्रहार, शरीर और इन्द्रिय, इन तीन पर्याप्तियों को पूर्ण किये बिना मरते नहीं । इस नियम के संबन्ध में श्रीमलयगिरिजी ने नन्दीसूत्र की टीका, पृ० १०५ में यह लिखा है
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