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जैन धर्म और दर्शन (५) 'उपयोग का सह-क्रमभाव'
छद्मस्थ के उपयोग क्रमभावी हैं, इसमें मतभेद नहीं है, पर केवली के उपयोग के संबन्ध में मुख्य तीन पक्ष हैं
(१) सिद्धान्त-पक्ष. केवलज्ञान और केवलदर्शन को क्रमभावी मानता है । इसके समर्थक श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण आदि हैं।
. (२) दूसरा पक्ष केवलज्ञान केवलदर्शन, उभय उपयोग को सहभावी मानता है। इसके पोषक श्री मल्लवादी तार्किक आदि हैं।
(३) तीसरा पक्ष, उभय उपयोगों का भेद न मानकर उनका ऐक्य मानता है । इसके स्थापक श्री सिद्धसेन दिवाकर हैं ।
तीनों पक्षों की कुछ मुख्य मुख्य दलीलें क्रमशः नीचे दी जाती हैं
१-(क) सिद्धान्त (भगवती-शतक १८ और २५ के ६ उद्देश्य, तथा प्रज्ञापना पद ३० ) में ज्ञान-दर्शन दोनों का अलग-अलग कथन है तथा उनका क्रमभावित्व स्पष्ट वर्णित है । (ख) नियुक्ति (प्रा. नि. गा० ६७७-६७६) में केव. लशान-केवलदर्शन दोनों का भिन्न-भिन्न लक्षण उनके द्वारा सर्व-विषयक ज्ञान तथा दर्शन का होना और युगपत् दो उपयोगों का निषेध स्पष्ट बतलाया है । (ग) केवलज्ञान-केवलदर्शन के भिन्न-भिन्न आवरण और उपयोगों की आरह संख्या शास्त्र में (प्रजापना २६, पृ० ५३५ श्रादि) जगह-जगह वर्णित है । (घ) केवलज्ञान और केवलदर्शन, अनन्त कहे जाते हैं, सो लब्धि की अपेक्षा से उपयोग की अपेक्षा से नहीं। उपयोग की अपेक्षा से उनकी स्थिति एक समय की है; क्योंकि उपयोग की अपेक्षा से अनन्तता शास्त्र में कहीं भी प्रतिपादित नहीं है। (ङ) उपयोगों का स्वभाव ही ऐसा है, जिससे कि वे क्रमशः प्रवृत्त होते हैं । इसलिए केवल ज्ञान और केवलदर्शन को क्रमभावी और अलग-अलग मानना चाहिए।
२—(क) आवरण क्षयरूप निमित्त और सामान्य-विशेषात्मक विषय, समकालीन होने से केवलज्ञान और केवलदर्शन युगपत् होते हैं। (ख) छाद्मस्थिक-उपयोगों में कार्यकारणभाव या परस्पर प्रतिबन्ध्य-प्रतिबन्धक भाव घट सकता है, क्षायिक-उपयोगों में नहीं; क्योंकि बोध-स्वभाव शाश्वत अात्मा, जब निरावरण हो, तब उसके दोनों क्षायिक-उपयोग निरन्तर ही होने चाहिए। (ग) केवलज्ञान-केवलदर्शन की सादि-अपर्यवसितता, जो शास्त्र में कही है, वह भी युगपत्-पक्ष में ही घट सकती है क्योंकि इस पक्ष में दोनों उपयोग युगपत् और निरन्तर होते रहते हैं। इसलिए द्रव्यार्थिकनय से उपयोग-द्वय के प्रवाह को अपर्यवसित (अनन्त ) कहा जा सकता है । (घ) केवलज्ञान-केवलदर्शन के संबन्ध में सिद्धान्त में जहाँ
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