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उपयोग का सह-क्रमभाव
३०० कहीं जो कुछ कहा गया है, वह सब दोनों के व्यक्ति-भेद का साधक है, क्रम भावित्वका नहीं। इसलिए दोनों उपयोग को सहभावी मानना चहिए ।
३-(क) जैसे सामग्री मिलने पर एक ज्ञान-पर्याय में अनेक घट-पटयदि विषय भासित होते है, वैसे ही आवरण-क्षय, विषय आदि सामग्री मिलने पर एक ही केवल उपयोग, पदार्थों के सामान्य-विशेष उभय स्वरूप को जान सकता है। (ख) जैसे केवल ज्ञान के समय, मतिज्ञानावरणादि का अभाव होने पर भी मति
आदि ज्ञान, केवल ज्ञान से अलग नहीं माने जाते, वैसे ही केवल दर्शनावरण का क्षय होने पर भी केवलदर्शन को, केवलज्ञान से अलग मानना उचित नहीं। (ग) विषय और क्षयोपशम की विभिन्नता के कारण, छाद्मस्थिक ज्ञान और दर्शन में परस्पर भेद माना जा सकता है, पर अनन्त-विषयकता और क्षायिक-भाव समान होने से केवलज्ञान केवलदर्शन में किसी तरह भेद नहीं माना जा सकता। (घ) यदि केवलदर्शन को केवलज्ञान से अलग माना जाए तो वह सामान्यमात्र को विषय करनेवाला होने से अल्प-विषयक सिद्ध होगा, जिससे उसका शास्त्रकथित अनन्त-विषयकत्व नहीं घट सकेगा । (ङ) केवली का भाषण, केवलज्ञानकेवलदर्शन पूर्वक होता है, यह शास्त्र कथन अभेद-पक्ष ही में पूर्णतया घट सकता है। (च) आवरण-भेद कथञ्चित् है; अर्थात वस्तुतः प्रावरण एक होने पर भी कार्य और उपाधि-भेद की अपेक्षा से उसके भेद समझने चाहिए इसलिए एक उपयोग-व्यक्ति में ज्ञानत्व-दर्शनत्व दो धर्म अलग-अलग मानना चाहिए । उपयोग, ज्ञान-दर्शन दो अलग-अलग मानना युक्त नहीं; अतएव ज्ञान-दर्शन दोनों शब्द पर्यायमात्र (एकार्थवाची) हैं।
उपाध्याय श्रीयशोविजयजी ने अपने ज्ञानबिन्दु पृ० १६४ में नय-दृष्टि से तीनों पक्षों का समन्वय किया है. सिद्धान्त-पक्ष, शुद्ध ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा से; श्री मल्लबादीजी का पक्ष, व्यवहार-नय की अपेक्षा से और श्रीसिद्धसेन दिवाकर का पक्ष संग्रहनय की अपेक्षा से जानना चाहिए । इस विवष का सविस्तर वर्णन, सम्मतितर्क; जीवकाण्ड गा० ३ से आगे; विशेषावश्यक भाष्य, गा. ३०८८३१३५, श्रीहरिभद्रसूरि कृत धर्मसंग्रहणी गा० १३३६-१३५६; श्रीसिद्धसेनगणिकृत तत्त्वार्थ टीका अ० १, सू० ३१, पृ० १% श्रीमलयगिरि-नन्दीवृत्ति पृ० १३४१३८ और ज्ञानबिन्दु पृ० १५४-१६४ से जान लेना चाहिए।
दिगम्बर-सम्प्रदाय में उक्त तीन पक्ष में से दूसरा अर्थात् युगपत् उपयोगद्वय का पक्ष ही प्रसिद्ध है--
"जुगवं वइ गाणं, केवलणाणिस्स दंसणं च तहा। दियरपयासतापं, जद्द वट्टइ तह मुणेयव्वं ॥१६॥' -नियमसार ।
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