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________________ जैन-संस्कृति का हृदय १३७ अर्थात् विद्याध्ययन आदि, पितृ ऋण अर्थात् संतति-जननादि और देवऋण अर्थात् यशयागादि बन्धनों से आबद्ध है । व्यक्ति को सामाजिक और धार्मिक कर्तव्यों का पालन करके अपनी कृपण इच्छा का संशोधन करना इष्ट है । पर उसका निर्मूल नाश करना न शक्य और न इष्ट । प्रवर्तक धर्म के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के लिए गृस्थाश्रम जरूरी है उसे लांघ कर कोई विकास कर नहीं सकता। व्यक्तिगामी निवर्तक-धर्म निवर्तक-धर्म व्यक्तिगामी है। वह श्रात्मसाक्षात्कार की उत्कृष्ट वृत्ति में से उत्पन्न होने के कारण जिज्ञासु को श्रात्म तत्त्व है या नहीं, है तो वह कैसा है, उसका अन्य के साथ कैसा संबंध है, उसका साक्षात्कार संभव है तो किन-किन उपायों से संभव है, इत्यादि प्रश्नों की ओर प्रेरित करता है । ये प्रश्न ऐसे नहीं हैं कि जो एकान्त-चिन्तन, ध्यान, तप और असंगतापूर्ण जीवन के सिवाय सुलझ सकें। ऐसा सच्चा जीवन खास व्यक्तियों के लिए ही संभव हो सकता है । उसका समाजगामी होना संभव नहीं। इस कारण प्रवर्तक-धर्म की अपेक्षा निवर्तक-धर्म का क्षेत्र शुरू में बहुत परिमित रहा । निवर्तक-धर्म के लिए गृहस्थाश्रम का बंधन था ही नहीं। वह गृहस्थाश्रम विना किये भी व्यक्ति को सर्वत्याग की अनुमति देता है । क्योंकि उसका आधार इच्छा का संशोधन नहीं पर उसका निरोध है । अतएव प्रवर्तक-धर्म समस्त सामाजिक और धार्मिक कर्तव्यों से बद्ध होने की बात नहीं मानता । उसके अनुसार व्यक्ति के लिए मुख्य कर्तव्य एक ही है और वह यह कि जिस तरह हो अात्मसाक्षात्कार का और उसमें रुकावट डालने वाली इच्छा के नाश का प्रयत्न करे । निवत्तक-धर्म का प्रभाव व विकास___ जान पड़ता है इस देश में जब प्रवर्तक धर्मानुयायी वैदिक आर्य पहलेपहल आए तब भी कहीं न कहीं इस देश में निवर्तक-धर्म एक या दूसरे रूप में प्रचलित था। शुरू में इन दो धर्म संस्थाओं के विचारों में पर्यास संघर्ष रहा पर निवर्तक-धर्म के इने-गिने सच्चे अनुगामियों की तपस्या, ध्यान-प्रणाली और असंगचर्या का साधारण जनता पर जो प्रभाव धीरे-धीरे बढ़ रहा था उसने प्रवर्तक धर्म के कुछ अनुगामित्रों को भी अपनी ओर खींचा और निवर्तक-धर्म की संस्थाओं का अनेक रूप में विकास होना शुरू हुआ । इसका प्रभावकारी फल अन्त में यह हुआ कि प्रवर्तक-धर्म के आधार रूप जो ब्रह्मचर्य और गृहस्थ दो आश्रम माने जाते थे उनके स्थान में प्रवर्तक-धर्म के पुरस्कर्ताओं ने पहले तो वानप्रस्थ सहित तीन और पीछे संन्यास सहित चार आश्रमों को जीवन में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229060
Book TitleJain Sanskruti ka Hridaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherZ_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf
Publication Year1957
Total Pages17
LanguageHindi
ClassificationArticle & Culture
File Size233 KB
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