________________
१३६
जैन धर्म और दर्शन
सूझ ने उन्हें मोक्ष पुरुषार्थ मानने के लिए बाधित किया। वे मानने लगे कि एक ऐसी भी आत्मा की स्थिति संभव है जिसे पाने के बाद फिर कभी जन्म-जन्मान्तर या देह धारण करना नहीं पड़ता । वे श्रात्मा की उस स्थिति को मोक्ष या जन्मनिवृत्ति कहते थे । प्रवर्तक धर्मानुयायी जिन उच्च और उच्चतर धार्मिक अनुष्ठानों से इस लोक तथा परलोक के उत्कृष्ट सुखों के लिए प्रयत्न करते थे उन धार्मिक अनुष्ठानों को निवर्तक धर्मानुयायी अपने साध्य मोक्ष या निवृत्ति के लिए न केवल
पर्यात ही समझते बल्कि वे उन्हें मोक्ष पाने में बाधक समझकर उन सब धार्मिक अनुष्ठानों को आत्यन्तिक हेय बतलाते थे । उद्देश्य और दृष्टि में पूर्व - पश्चिम जितना अन्तर होने से प्रवर्तक धर्मानुयायियों के लिए जो उपादेय वही निवर्तक - धर्मानुयायियों के लिए हेय बन गया । यद्यपि मोक्ष के लिए प्रवर्तक धर्म बाधक माना गया पर साथ ही मोक्षवादियों को अपने साध्य मोक्ष- पुरुषार्थ के उपाय रूप से किसी सुनिश्चित मार्ग की खोज करना भी अनिवार्य रूप से प्राप्त था । इस खोज की सूझ ने उन्हें एक ऐसा मार्ग, एक ऐसा उपाय सुझाया जो किसी बाहरी साधन पर निर्भर न था । वह एक मात्र साधक की अपनी विचारशुद्धि और वर्तन शुद्धि पर अवलंबित था । यहीं विचार और वर्तन की श्रात्यन्तिक शुद्धि का मार्ग निवर्तक धर्म के नाम से या मोक्ष मार्ग के नाम से प्रसिद्ध हुना ।
हम भारतीय संस्कृति के विचित्र और विविधि ताने-बाने की जांच करते हैं तब हमें स्पष्ट रूप से दिखाई देता है कि भारतीय आत्मवादी दर्शनों में कर्मकाण्डी मीमांसक के अलावा सभी निवर्तक धर्मवादी हैं । अवैदिक माने जानेवाले बौद्ध और जैन दर्शन की संस्कृति तो मूल में निवर्तक धर्म स्वरूप है ही पर वैदिक समझे जानेवाले न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग तथा औपनिषद दर्शन की आत्मा भी निवर्तक धर्म पर ही प्रतिष्ठित है । वैदिक हो या अवैदिक ये सभी निवर्तक-धर्म प्रवर्तक-धर्म को या यज्ञयागादि अनुष्ठानों को अन्त में हेय ही बतलाते हैं । और वे सभी सम्यक् ज्ञान या श्रात्म-ज्ञान को तथा आत्म-ज्ञानमूलक अनासक्त जीवन व्यवहार को उपादेय मानते हैं । एवं उसी के द्वारा पुनर्जन्म के चक्र से छुट्टी पाना संभव बतलाते हैं ।
समाजगामी प्रवर्तक-धर्म
ऊपर सूचित किया जा चुका है कि प्रवर्तक-धर्म समाजगामी था । इसका मतलब यह था कि प्रत्येक व्यक्ति समाज में रहकर ही सामाजिक कर्तव्य जो ऐहिक जीवन से संबन्ध रखते हैं और धार्मिक कर्तव्य जो पारलौकिक जीवन से संबन्ध रखते हैं, उनका पालन करे । प्रत्येक व्यक्ति जन्म से ही ऋषिऋ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org