________________ सर्वज्ञत्व 115 २–जहाँ तक सम्भव हो हर एक सम्प्रदायानुयायी अन्य सम्प्रदाय के मुखियों में सर्वशत्व-सर्वदर्शिल्य का निषेध करने की कोशिश करता था। ३-सर्वज्ञत्व-सर्वदर्शित्व की मान्यता की पुरानी साम्प्रदायिक कसौटी मुख्यतया साम्प्रदायिक श्रद्धा थी। उपर्युक्त ऐतिहासिक परिणामों से यह तो निर्विवाद सिद्ध है कि खुद महावीर के समय में ही महावीर निर्ग्रन्थ-परंपरा में सर्वज्ञ-सर्वदर्शी माने जाते थे / परन्तु प्रश्न तो यह है कि महावीर के पहले सर्वज्ञत्व-सर्वदर्शित्व के विषय में निर्ग्रन्यपरंपरा की क्या स्थिति, क्या मान्यता रही होगी ? जैन आगमों में ऐसा वर्णन है कि अमुक पाश्र्वापत्यिक निग्रन्थों ने महावीर का शासन तब स्वीकार किया जब उन्हें महावीर की सर्वज्ञता और सर्वदर्शिता में सन्देह न रहा / इससे स्पष्ट है कि महावीर के पहले भी पावापत्यिक निर्ग्रन्थ-परंपरा की मनोवृत्ति सर्वज्ञसर्वदर्शी को ही तीर्थकर मानने की थी, जो उत्तरकालीन निर्ग्रन्थ-परंपरा में भी कभी खण्डित नहीं हुई। सर्वज्ञत्व-सर्वदर्शित्व का सम्भव है या नहीं इसकी तर्कदृष्टि से परीक्षा करने का कोई उद्देश्य यहाँ नहीं है। यहाँ तो केवल इतना ही बतलाना है कि पुराने ऐतिहासिक युग में उस विषय में साम्प्रदायिकों की खासकर निम्रन्थ-परंपरा की मनोवृत्ति कैसी थी ? हजारों वर्षों से चली आनेवाली सर्वज्ञत्व-सर्वदर्शित्व विषयक श्रद्धा की मनोवृत्ति का अगर किसी ने पूरे बल से सामना किया है तो वह बुद्ध ही हैं। बुद्ध खुद अपने लिए कभी सर्वज्ञ-सर्वदर्शी होने का दावा करते न थे। और ऐसा दावा कोई उनके लिये करे तो भी उन्हें वह पसंद न था। अन्य सम्प्रदाय के जो अनुयायी अपने-अपने पुरस्कर्ताओं को सर्वज्ञ-सर्वदशी मानते थे उनकी उस मान्यता का किसी न किसी तार्किक सरणी से बुद्ध खंडन भी करते थे / बुद्ध के द्वारा किये गए इस प्रतिवाद से भी उस समय को सर्वज्ञत्व-सर्वदर्शित्व विषयक मनोवृत्ति का पता चल जाता है / [ई० 1047] 1. भगवती. 6. 32, 376 2. देखो, पृ० 114, टि० 2 / मज्झिम. सु०६३ / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org