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शब्दसे ऋषिने व्यक्त किया है, जिसका अनुसरण सांख्यकारिका (का० ५ ) श्रादिके अनुमान लक्षण में भी देखा जाता है ।
अनुमान स्वरूप और प्रकार निरूपण श्रादिका जो दार्शनिक विकास हमारे सामने है उसे तीन युगों में विभाजित करके हम ठीक-ठीक समझ सकते हैं १ वैदिक युग, २ बौद्ध युग और ३ नव्यन्याय युग ।
१- विचार करनेसे जान पड़ता है कि अनुमान प्रमाणके लक्षण और प्रकार श्रादिका शास्त्रीय निरूपण वैदिक परम्परा में ही शुरू हुआ और उसीकी विविध शाखा में विकसित होने लगा । इसका प्रारंभ कब हुआ, कहाँ हुआ, किसने किया, इसके प्राथमिक विकासने कितना समय लिया, वह किन किन प्रदेश में सिद्ध हुआ इत्यादि प्रश्न शायद सदा ही निरुत्तर रहेंगे। फिर भी इतना तो निश्चित रूपसे कहा जा सकता है कि इसके प्राथमिक विकासका ग्रन्थन भी वैदिक परंपरा के प्राचीन अन्य ग्रन्थ में देखा जाता है !
यह विकास वैदिकयुगीन इसलिए भी है कि इसके प्रारम्भ करनेमें जैन और बौद्ध परम्पराका हिस्सा तो है ही नहीं बल्कि इन दोनों परम्परानने वैदिक परम्परा से ही उक्त शास्त्रीय निरूपणको शुरू में अक्षरशः अपनाया है । यह वैदिक युगीन अनुमान निरूपण हमें दो वैदिक परम्पराओं में थोड़े बहुत हेर-फेर के साथ देखनेको मिलता है ।
(a) वैशेषिक और मीमांसक परम्परा -- इस परम्पराको स्पष्टतया व्यक्त करनेवाले इस समय हमारे सामने प्रशस्त और शाबर दो भाष्य हैं। दोनोंमें अनुमानके दो प्रकारोंका ही उल्लेख है' जो मूलमें किसी एक विचार परम्पराका सूचक है । मेरा निजी भी मानना है कि मूलमें वैशेषिक और मीमांसक दोनों परम्पराएँ कभी अभिन्न थीं, जो आगे जाकर क्रमश: जुदी हुई और भिन्नभिन्न मार्ग से विकास करती गई ।
(ब) दूसरी वैदिक परम्परा में न्याय, सांख्य और चरक इन तीन शास्त्रों
१. ' तत्तु द्विविधम् — प्रत्यक्षतो दृष्टसम्बन्धं सामान्यतो दृष्टसम्बन्धं च'-- शाबरभा० १. १. ५ । एतत्तु द्विविधम्-दृष्टं सामान्यतो दृष्टं चं' – प्रशस्त ० पृ० २०५ ।
२. मीमांसा दर्शन 'अथातो धर्मजिज्ञासा' में धर्मसे ही ही वैशेषिक दर्शन भी 'अथातो धर्मे व्याख्यास्यामः ' सूत्र में होता है । 'चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः' और 'तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम्'
दोनोंका भाव समान है।
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शुरू होता है वैसे धर्मनिरूपण से शुरू
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