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का समावेश है । इनमें अनुमानके तीन प्रकारोंका उल्लेख व वर्णन है' ! वैशेषिक तथा मीमांसक दर्शन में वर्णित दो प्रकारके बोधक शब्द करीब करीब समान हैं, जब कि न्याय आदि शास्त्रोंकी दूसरी परम्परा में पाये जानेवाले तीन प्रकारोंके बोधक शब्द एक ही हैं। अलबत्ता सब शास्त्रों में उदाहरण एकसे नहीं हैं ।
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जैन परम्परामैं सबसे पहिले अनुमानके तीन प्रकार अनुयोगद्वारसूत्र - जो ई० स० पहलो शताब्दीका है- ही पाये जाते हैं, जिनके बोधक शब्द अक्षरशः न्यायदर्शनके अनुसार ही हैं। फिर भी श्रनुयोगद्वार वर्णित तीन प्रकारोंके उदाहरणोंमें इतनी विशेषता अवश्य है कि उनमें भेद-प्रतिभेद रूपसे वैशेषिक-मीमांसक दर्शन वाली द्विविध अनुमानकी परम्पराका भी समावेश हो ही गया है !
बौद्ध परम्परामैं अनुमान के न्यायसूत्रवाले तीन प्रकारका ही वर्णन है जो एक मात्र उपायहृदय ( पृ० १३) में अभी तक देखा जाता है। जैसा समझा जाता है, उपायहृदय अगर नागार्जुनकृत नहीं हो तो भी वह दिङ्नागका पूर्व - वर्ती अवश्य होना चाहिए । इस तरह हम देखते हैं कि ईसाकी चौथी पाँचवी शताब्दी तक के जैन-बौद्ध साहित्य में वैदिक युगीन उक्त दो परम्पराओं के अनुमान वर्णनका ही संग्रह किया गया है । तब तकमैं उक्त दोनों परम्पराएँ मुख्यतया प्रमाणके विषय में खासकर अनुमान प्रणालीके विषय में वैदिक परम्पराका ही अनुसरण करती हुई देखी जाती है।
२- ई० स० की पाँचवीं शताब्दी से इस विषय में बौद्धयुग शुरू होता है । बौद्धयुग इसलिये कब तक जो अनुमान प्रणाली वैदिक परम्पराके अनुसार ही मान्य होती आई थी उसका पूर्ण बलसे प्रतिवाद करके दिङ्नागने अनुमान का लक्षण स्वतन्त्र भावसे रचा और उसके प्रकार भी अपनी बौद्ध दृष्टिसे बतलाए । दिङ्नागके इस नये श्रनुमानः प्रस्थानको सभी उत्तरवर्ती बौद्ध विद्वानोंने
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१ ' पूर्ववच्छेपवत्सामान्यतो दृष्ट' च' न्यायसू० १.१.५ । माठर० का ० ५ । चरक सूत्रस्थान श्लो० २८, २६ ।
२ 'तिविहे पण ते तंजड़ा - पुव्ववं, सेसवं, दिसाहम्मवं । - अनुयो ० पृ० २१२A |
३ प्रमाणसमु० २. १. Buddhist Logic Vol. I. p. 236,
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