________________ वभास' शब्दवाला सिद्धसेन समन्तभद्रका लक्षण अाता है जो संभवतः बौद्ध विज्ञानवादके स्व-परसंवेदनकी विचारछायासे खाली नहीं है, क्योंकि इसके पहिले अागम ग्रंथों में यह विचार नहीं देखा जाता। दूसरे विभागमें अकलंकमाणिक्यनन्दीका लक्षण श्राता है जिसमें 'श्रविसंवादि', अनधिगत' और 'अपूर्व' शब्द आते हैं जो असंदिग्ध रूपसे बौद्ध और मीमांसक ग्रंथों के ही हैं। तीसरे विभागमें विद्यानन्द, अभयदेव और देवसूरिके लक्षणका स्थान है जो वस्तुतः सिद्ध सेन-समन्तभद्रके लक्षणका शब्दान्तर मात्र है पर जिसमें अवभास के स्थान में 'व्यवसाय' या 'निर्णीति' पद रखकर विशेष अर्थ समाविष्ट किया है / अन्तिम विभागमें मात्र प्रा. हेमचन्द्रका लक्षण है जिसमें 'स्व', 'अपूर्व', 'अनधिगत' आदि सब उड़ाकर परिष्कार किया गया है / ई. 1636 ] [प्रमाण मीमांसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org