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पराका संग्रह कर दिया । विद्यानन्द ने अकलंक तथा माणिक्यनन्दी की उस परम्परासे अलग होकर केवल सिद्धसेन और समन्तभद्रकी व्याख्या को अपने 'स्वार्थ व्यवसायात्मक' जैसे शब्द में संग्रहीत किया और 'अनधिगत' या 'अपूर्व' पद जो अकलंक और माणिक्यनन्दीकी व्याख्या में हैं, उन्हें छोड़ दिया । विद्यानन्दका व्यवसायात्मक' पद जैन परम्परा के प्रमाणलक्षणमें प्रथम ही देखा जाता है पर वह अक्षपाद के प्रत्यक्षलक्षण में तो पहिले ही से प्रसिद्ध रहा है । सन्मति के टीकाकार अभयदेव ने विद्यानन्दका ही अनुसरण किया पर 'व्यवसाथ' के स्थान में 'निर्णीति' पद रखा । वादी देवसूरिने तो विद्यानंद के ही शब्दों को दोहराया है । ० हेमचन्द्र ने उपर्युक्त जैन- जैनेतर भिन्न-भिन्न परं पराका श्रौचित्य अनौचित्य विचारकर अपने लक्षण में केवल 'सम्यक्', 'अर्थ' और 'निर्णय' ये तीन पद रखे । उपर्युक्त जैन परम्परात्रों को देखते हुए यह कहना पड़ता है कि आ• हेमचन्द्र ने अपने लक्षण में काट-छाँट के द्वारा सशोधन किया है । उन्होंने 'स्व' पद जो पूर्ववर्ती सभी जैनाचार्योंर्ने लक्षण में सन्निविष्ट किया था, निकाल दिया । 'अवभास', 'व्यवसाय' श्रादि पदोंको स्थान न देकर अभयदेव के 'निर्णीति' पदके स्थान में 'निर्णय' पद दाखिल किया और उमास्वाति, धर्मकीति तथा मासर्वंशके सम्यक् पदको अपनाकर अपना 'सम्यगर्थनिर्णय' लक्षण निर्मित किया है ।
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आर्थिक तात्पर्य में कोई खास मतभेद न होनेपर भी सभी दिगम्बर श्वेताम्बर श्राचार्यों के प्रमाणलचण में शाब्दिक भेद है, जो किसी अंश में विचार विकासका सूचक और किसी अंश में तत्कालीन भिन्न-भिन्न साहित्यके अभ्यासका परिणाम है । यह भेद संक्षेपमें चार विभागों में समा जाता है । पहिले विभागमें 'स्व-परा
१. ' तत्स्वार्थ व्यवसायात्मज्ञान मानमितीयता । लक्षणेन गतार्थत्वात् व्यर्थमन्यद्विशेषणम् ॥' – तत्त्वार्थश्लो० १. १० ७७. प्रमाणप० पृ० ५३.
२. 'इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम् ।' –न्याय सू० १. १. ४.
३. 'प्रमाणं स्वार्थनिर्णीतिस्वभावं ज्ञानम् ।' सन्मतिटी० पृ० ५१८. ४. 'स्वपव्यवसायि ज्ञानं प्रमाणम् । '
५. 'सम्यग्दर्शन ज्ञानचरित्राणि मोक्षमार्गः । ' ज्ञानपूर्विका सर्वपुरुषार्थसिद्धिः । प्रमाणम् ।' न्यायसार पृ० १.
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प्रमाणन० १. २.
तत्त्वार्थ० १. १. 'सभ्यन्यायवि० १. १. 'सम्यगनुभवसाधनं
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