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________________ का दर्शनोपयोग सम्यक्दर्शन है और मिथ्याष्टियुक्त प्रारमाका दर्शनोपयोग मिथ्यादर्शन है । व्यवहारमें मिथ्या, भ्रम या व्यभिचारी समझा जानेवाला भी दर्शन अगर सम्यक्त्वधारि-आत्मगत है तो वह सम्यग्दर्शन ही है जब कि सस्य अभ्रम और अबाधित समझा जानेवाला भी दर्शनोपयोग अगर मिथ्यादृष्टियुक्त है तो वह मिथ्यादर्शन ही है । ... दर्शनके सम्यक्त्व तथा मिथ्यात्वका आगमिक दृष्टि से जो श्रापेक्षिक वर्णन ऊपर किया गया है वह सन्मतिटीकाकार अभयदेवने दर्शनको भी प्रमाण कहा है इस श्राधारपर समझना चाहिए। तथा उपाध्याय · यशोविजयजीने संशय आदि ज्ञानोंको भी सम्यकदृष्टियुक्त होनेपर सम्यक् कहा है-इस अाधारपर समझना चाहिए । श्रागमिक प्राचीन और श्वेताम्बर-दिगम्बर उभय साधारण परम्परा तो ऐसा नहीं मानती, क्योकि दोनों परम्पराअोंके अनुसार चतु, अचक्षु, और अवधि तीनों दर्शन दर्शन ही माने गये हैं। उनमें से न कोई सम्यक् या न कोई मिथ्या और न कोई सम्यक् मिथ्या उभयविध माना गया है जैसा कि मेति-श्रुत अवधि शान सम्यक् और मिथ्या रूपसे विभाजित हैं। इससे यही फलित होता है कि दर्शन उपयोग मात्र निराकार होनेसे उसमें सम्यग्दृष्टि किंवा मिथ्यादृष्टिप्रयुक्त अन्तरकी कल्पना की नहीं जा सकती । दर्शन चाहे चक्षु हो, श्रचक्षु हो या अवधि-वह दर्शन मात्र है । उसे न सम्यग्दर्शन कहना चाहिए और न मिथ्यादर्शन | यही कारण है कि पहिले गुणस्थानमें भी वे दर्शन ही माने गर हैं जैसा कि चौथे गुणस्थानमें । यह वस्तु गन्धहस्ति सिद्धसेनने सूचित भी की है--"अत्र च यथा साकाराद्धायां सम्यमिश्यादृष्ट्योर्विशेषः, नैवमस्ति दर्शने, अनाकारवे द्वयोरपि तुल्यस्वादित्यर्थः"- तत्त्वार्थभा० टी २.६ । यह हुई श्रागमिक दृष्टिकी बात जिसके अनुसार उमास्वातिने उपयोगमें सम्यक्त्व-असम्यक्त्वका निदर्शन किया है। पर जैनपरम्परामें तर्कयुग दाखिल होते ही प्रमाव-अप्रमात्व या प्रामाण्य-अप्रामाण्यका प्रश्न अाया । और उसका विचार भी श्राध्यात्मिक भावानुसारी न होकर विषयानुसारी किया जाने लगा जैसा कि जैनेतर दर्शनोंमें तार्किक विद्वान् कर रहे थे। इस तार्किक दृष्टि के अनुसार जैनपरम्परा दर्शनको प्रमाण मानती है, अप्रमाण मानती है, उभयरूप मानती है या उभयभिन्न मानती है ? यह प्रश्न यहाँ प्रस्तुत है । १-"सम्यग्दृष्टिसम्बन्धिनां संशयादीनामपि ज्ञानत्वस्य महाभाष्यकृता परिभाषितत्वात्'-शानबिन्दु पृ० १३६ B. नन्दी सू० ४१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229012
Book TitleDarshan Shabda ka Visheshartha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherZ_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf
Publication Year1957
Total Pages7
LanguageHindi
ClassificationArticle & Philosophy
File Size571 KB
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