Book Title: Darshan Shabda ka Visheshartha
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 1
________________ दर्शन शब्दका विशेषार्थ । दर्शन शब्दके तीन अर्थ सभी परम्पराओंमें प्रसिद्ध हैं, जैसे—घटदर्शन इत्यादि व्यवहारमें चाक्षुष ज्ञान अर्थमें, आत्मदर्शन इत्यादि व्यवहारमें साक्षात्कार अर्थमें और न्याय-दर्शन, सांख्य-दर्शन इत्यादि व्यवहारमें खास-खास परम्परासम्मत निश्चित विचारसरणी अर्थमें दर्शन शब्दका प्रयोग सर्वसम्मत है पर उसके अन्य दो अर्थ जो जैन परम्परामें प्रसिद्ध हैं वे अन्य परम्परात्रोंमें प्रसिद्ध नहीं। उनमेंसे एक अर्थ तो है श्रद्धान और दूसरा अर्थ है सामान्यबोध या आलोचन मात्र । जैनशास्त्रों में तत्त्वश्रद्धाको दर्शन पदसे व्यवहत किया जाता है, जैसे-'तरवार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्'-तत्वार्थ० १.२। इसी तरह वस्तुके निर्विशेषसत्तामात्रके बोधको भी दर्शन कहा जाता है जैसे'विषय-विषयिसन्निपातानन्तरसमुद्भूतसत्तामात्रगोचरदर्शनात्'-प्रमाणन० २. ७ । दर्शन शब्दके उक्त पाँच अर्थों में से अन्तिम सामान्यबोधरूप अर्थ लेकर ही यहाँ विचार प्रस्तुत है। इसके सम्बन्धमें यहाँ छः मुद्दोंपर कुछ विचार किया जाता है। १. अस्तित्व-जिस बोधमें वस्तुका निर्विशेषण स्वरूपमात्र भासित हो ऐसे बोधका अस्तित्व एक या दूसरे नामसे तीन परम्पराओंके सिवाय सभी परम्पराएँ स्वीकार करती हैं। जैनपरम्परा जिसे दर्शन कहती है उसी सामान्यमात्र बोधको (१) दर्शन शब्दका अालोचन श्रर्थ, जिसका दूसरा नाम अनाकार उपयोग भी है, यहाँ कहा गया है सो श्वेताम्बर दिगम्बर दोनों परम्पराकी अति प्रसिद्ध मान्यताको लेकर । वस्तुतः दोनों परम्पराओंमें अनाकार उपयोगके सिवाय अन्य अर्थ भी दर्शन शब्दके देखे जाते हैं। उदाहरणार्थ-लिङ्गके बिना ही साक्षात् हानेवाला बोध अनाकार या दर्शन है और लिङ्गसापेच बोष साकार या ज्ञान है यह एक मत ! दूसरा मत ऐसा भी है कि वर्तमानमात्रमाही बोध-दर्शन और त्रैकालिकग्राही बोध-ज्ञान-तस्वार्थभा. टी. २. ।। दिगम्बरीय धवला टीकाका ऐसा भी मत है कि जो श्रात्म-मात्रका अवलोकन वह दर्शन और जो बाप अर्थका प्रकाश वह ज्ञान । यह मत वृहद्रव्यसंग्रहटीका (गा० ४४ ) तथा लघीयत्रयीकी अभयचन्द्रकृत (१.५) में निर्दिष्ट है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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