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नुसार सांव्यवहारिक दर्शन है उसकी उत्पादक सामग्री में विषयेन्द्रियसन्निपात और यथासम्भव लोकादि सन्निविष्ट हैं। पर अलौकिक निर्विकल्प जो जैनपरम्पराके अनुसार पारमार्थिक दर्शन है उसकी उत्पत्ति इन्द्रियसन्निकर्ष के सिवाय केवल विशिष्ट आत्मशक्तिसे मानी गई है । उत्पादक सामग्री के विषय में जैन और जैनेतर परम्पराएँ कोई मतभेद नहीं रखतीं । फिर भी इस विषय में शाङ्कर वेदान्तका मन्तव्य जुदा है जो ध्यान देने योग्य है । वह मानता है कि 'तत्वमसि' इत्यादि महावाक्यजन्य अखण्ड ब्रह्मबोध भी निर्विकल्पक है । इसके अनुसार निर्विकल्पकका उत्पादक शब्द आदि भी हुआ जो अन्य परम्परा - सम्मत नहीं ।
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६. प्रामाण्य - निर्विकल्पके प्रामाण्य के सम्बन्धमें जैनेतर परम्पराएँ भी एकमत नहीं । बौद्ध और वेदान्त दर्शन तो निर्विकल्पकको ही प्रमाण मानते हैं इतना ही नहीं बल्कि उनके मतानुसार निर्विकल्पक ही मुख्य व पारमार्थिक प्रमाण है । न्याय-वैशेषिक दर्शनमें निर्विकल्पक के प्रमात्व संबन्धमें एकविध कल्पना नहीं है । प्राचीन परम्परा के अनुसार निर्विकल्पक प्रमारूप माना जाता है जैसा कि श्रीधरने स्पष्ट किया है ( कन्दली पृ० १६८ ) और विश्वनाथने भी भ्रमभिन्नत्वरूप प्रभाव मानकर निर्विकल्पकको प्रमा कहा है ( कारिकावली का० १३४ ) परन्तु गनेशकी नव्य परम्परा के अनुसार निर्विकल्पक न प्रमा है और न प्रमा । तदनुसार प्रमाख किंवा अप्रमात्व प्रकारतादिघटित होनेसे, निर्विकल्प जो प्रकारतादिशून्य है वह प्रमा- श्रप्रमा उभय विलक्षण है – कारिकावली का० १३५ । पूर्वमीमांसक और सांख्य योगदर्शन सामान्यतः ऐसे विषयोंमें न्याय-वैशेषिकानुसारी होनेसे उनके मतानुसार भी निर्विकल्पक के प्रमाविकी वे ही कल्पनाएँ मानी जानी चाहिएँ जो न्यायवैशेषिक परम्परा में स्थिर हुई हैं। इस सम्बन्ध में जैन परम्पराका मन्तव्य यहाँ विशेष रूपसे वर्णन करने योग्य है ।
जैनपरम्परा में प्रभाव किंवा प्रामाण्यका प्रश्न उसमें तर्कयुग श्रानेके बादका है, पहिलेका नहीं । पहिले तो उसमें मात्र श्रागमिक दृष्टि थी । श्रागमिक दृष्टिके अनुसार दर्शनोपयोगको प्रमाण किंवा श्रप्रमाण कहनेका प्रश्न ही न था । उस दृष्टि अनुसार दर्शन हो या ज्ञान, या तो वह सम्यक हो सकता है या मिथ्या | उसका सम्यक्व और मिथ्यात्व भी श्राध्यात्मिक भावानुसारी ही माना जाता था | अगर कोई आत्मा कमसे कम चतुर्थ गुणस्थानका अधिकारी हो अर्थात् वह सम्यक्प्राप्त हो तो उसका सामान्य या विशेष कोई भी उपयोग मोक्षमार्गरूप तथा सम्यग्रूप माना जाता है । तदनुसार श्रागमिक दृष्टिसे सम्यक्त्वयुक्तं श्रात्मा
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