________________ रहना चाहिए / विचार व अभ्यासका क्षेत्र अनुकूल परिस्थितिकी तरह प्रतिकूल परिस्थितिमें भी विस्तृत होता है। मुझको श्रापके लेखसे तथा थोड़ेसे वैयक्तिक परिचयसे मालूम होता है कि श्रापने किसी बुरी नियतसे या स्वार्थसे नहीं लिखा है। लेखकी वस्तु तो बिल्कुल सही है / इस स्थितिमें जितना विरोध हो, आपकी परीक्षा ही है | समभाव और अभ्यासकी वृद्धिके साथ लेखमें चर्चित मुद्दोपर आगे भी विशेष लिखना धर्म हो जाता है / हाँ, जहाँ कोई गलती मालूम हो, कोई बतलाए, फौरन सरलतासे स्वीकार कर लेने की हिम्मत भी रखना। बाकी जो-जो काम खास कर सार्वजनिक काम, धनाश्रित होंगे वहाँ धन अपने विरोधियोंको चुप करनेका प्रयत्न करेगा ही। इसीसे मैंने श्राप नवयुवकोंके समक्ष कहा था कि पत्र-पत्रिकादि स्वावलम्बनसे चलायो / प्रेस श्रादिमें धनिकों का श्राश्रय उतना वांछनीय नहीं / कामका प्रमाण थोड़ा होकर भी जो स्वावलम्बी होगा वही ठोग और निरुपद्रव होगा। हाँ, सब धनी एकसे नहीं होते | विद्वान् भी, लेखक भी स्वार्थी, खुशामदी होते हैं। कोई बिलकुल सुयोग्य भी होते हैं। धनिकोंमें भी सुयोग्य व्यक्तिका अत्यन्त प्रभाव नहीं। धन स्वभावसे बुरी वस्तु नहीं जैसे विद्या भी। अतएव अगर सामाजिक प्रवृत्ति में पड़ना हो तब तो हरेक युवकके वास्ते जरूरी है कि वह विचार एवं अभ्याससे स्वावलम्बी बने और थोड़ी भी अपनी आमदनी पर ही कामका हौसला रखे। गुणग्राही धनिकों का श्राश्रय मिल जाए तो वह लाभमें समझना। __इस दृष्टिसे आगे लेखन-प्रवृत्ति करनेसे फिर क्षोभ होनेका कोई प्रसङ्ग नहीं श्राता / बाकी समाज, खास कर मारवाड़ी समाज इतना विद्या विहीन और असहिष्णु है कि शुरू-शुरूमें उसकी अोरसे सब प्रकारके विरोधोंको सम्भव मान ही रखना चाहिए, पर वह समाज भी इस जमाने में अपनी स्थिति इच्छा या अनिच्छासे बदल ही रहा है। उसमें भी पढ़े लिखे बढ़ रहे हैं। आगे वहीं सन्तान अपने वर्तमान पूर्वजोंकी कड़ी समीक्षा करेगी, जैसी अापने की है / [ अोसवाल नवयुवक 8-11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org