Book Title: Ek Patra
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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________________ एक पत्र' ............लेख अभी सुन गया । मुझको तो इसमें कोई अयुक्त किंवा आपत्तिजनक अंश प्रतीत नहीं हुश्रा । इससे भी कड़ी समालोचना गुजरात, महाराष्ट्र आदिमें खुद जैन समाजमें होती है। अगर किसीको लेखमें गलती मालूम हो तो उसका धर्म है कि वह युक्ति तथा दलीलसे जवाब दे। व्यवहार धर्म सामाजिक वस्तु है, इसपर विचार करना, समालोचना करना हरएक बुद्धिशाली और जवाबदेह व्यक्तिका कर्तव्य है। ऐसे कर्तव्यको दबावसे, भयसे, लालचसे, खुशामदसे रोकना समाज को सुधरनेसे या सुधारनेसे रोकना मात्र है। समालोचक भ्रान्त हो तो सयुक्तिक जवाबसे उसकी भ्रान्ति दूर करना, यह दूसरे पक्षका पवित्र कत्तव्य है । यह तो हुई सार्वजनिक वस्तुपर समालोचनाकी सामान्य बात । पर समालोचकका भी एक अधिकार होता है जिसके बलपर वह समाजके चालू व्यवहारों और मान्यताओंकी टीका कर सकता है । वह अधिकार यह है कि उसका दर्शन तथा श्रवलोकन स्पष्ट एवं निष्पक्ष हो । वह किसी लालच, स्वार्थ या खुशामदसे प्रेरित होकर प्रवृत्त होनेवाला न हो । इस अधिकारकी परीक्षा भी हो सकती है। मैं कुछ लिखने लगा, विरोधियोंने मुझे कुछ लालच दी, कुछ खुशामद की और मैं रुक गया । अथवा मुझे भय दिखाया, पूरी तरह गिराने का प्रयत्न किया और मैं अपने विचार प्रकट करनेसे रुक गया या विचार वापिस खींच लिया तब समझना चाहिए कि मेरा समालोचनाका अधिकार नहीं है। इसी तरह किसी व्यक्ति या समूहको नीचा दिखानेकी बुरी नियतसे भी समालोचना करना अधिकार-शून्य है । ऐसी नियतकी परीक्षा भी की जा सकती है। सामाजिक व धार्मिक संशोधनकी तटस्थ दृष्टिसे अपना विचार प्रकट करना, यह अपना पढ़े-लिखे लोगों का विचारधर्म है। इसे उत्तरोत्तर विकसित ही करना चाहिये । रुकावटें जितनी अधिक हों उतना विकास भी अधिक साधना चाहिये। मतलब यह कि चर्चित विषयको और भी गहराई एवं प्रमाणोंके साथ फिरसे सोचना-जाँचना चाहिए और समभाव विशेष पुष्ट करके उस विवादास्पद विषयपर विशेष गहराई एवं स्पष्टताके साथ लिखते (१) श्री भंवरमलजी सिंधीके नाम यह पत्र 'धर्म और धन' शीर्षक लेखके विषयमें लिखा गया था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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