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उसका तात्पर्य यह है कि पंचांग में चतुर्दशी होने पर भी त्रयोदशी के दिन चतुर्दशी करना अथवा पहली पूर्णिमा या अमावास्या के दिन चतुर्दशी करना, साथ । साथ भाद्रपद शुक्ल पंचमी दो होने पर पहली पंचमी के दिन दूसरी चतुर्थी (जिसमें संवत्सरी महापर्व की आराधना की जाती है) मानने में और मनाने में परंपरावाले किसी भी प्रकार की गलती नहीं करते है । और इस प्रकार मानना या मनाना तनिक भी अनर्थ का कारण नहीं है किन्तु निश्चय ही आराधना ही है और सम्यक्त्व अर्थात् शुद्ध श्रद्धा की निर्मळता का परम आलंबन या कारण है।
वदतो व्याघात जैसा बोलनेवाले अनुकंपा अर्थात् दया करने लायक ही है।
जो वर्ग श्रीविजयदेवसूरीय परंपरावाले तपागच्छीय सकळ श्री संघ से वि. सं. 1992 और 1993 में पर्वतिथि की क्षय-वृद्धि में अलग होकर तिथि की, पक्खी की और चातुर्मासिक की आराधना अलग की है । बाद में पिछले कुछ साल से अपनी तिथि कीभिन्न आचरणा व प्ररूपणा में पट्ट के रूप में थोडा सा परिवर्तन करके पूर्णिमा और अमावास्या की आराधना में परंपरावाले एकतिथि पक्ष के अनुसार आराधना करते हैं और करवाते हैं तथा पहली पूर्णिमा या पहली अमावास्या के दिन चतुर्दशी और पंचांग की चतुर्दशी के दिन दूसरी त्रयोदशी मानते हैं और मनाते हैं । जिस दिन लौकिक पंचांग में चतुर्दशी का भोग्य काल का नामनिशान भी नहीं है उसी दिन चतुर्दशी तथा पंचांग में चतुर्दशी होने पर भी त्रयोदशी के दिन चतुर्दशी मानते हैं और मनाते भी हैं । इतना ही नहीं उसी वर्ग की तिथिपत्रिका अर्थात् पंचांग में भी जब लौकिक पंचांग में दो पूर्णिमा या दो अमावास्या हो तब दो त्रयोदशी लिखा जाता है और पूर्णिमा या अमावास्या क्षय होने पर त्रयोदशी का क्षय लिखा जाता है और इसी प्रकार वे परंपरावालों के साथ ही पूर्णिमा या अमावास्या की क्षय-वृद्धि में चतुर्दशी की, पक्खी की और चातुर्मासिकी की आराधना करते हैं ।
__तथापि आज उसी वर्ग के लोग अपने लिये ही वदतो व्याघात जैसा "परंपरावाले महा अनर्थ कर रहे हैं और उनको अपने भलाई कि खातिर भी अपनी
भूल सुधार लेने की आवश्यकता है।" ऐसा बोल रहे हैं और लिखवाते भी है । ऐसा वदतो व्याघात जैसा बोलकर वे लोग ही (यदि उनकी समझ में आये तो)कैसा महा अनर्थ कर रहे हैं ? कैसा महा अनर्थ का सेवन कर हैं ? कैसी भूल कर रहेहै ?
यदि उनको सही बात समझ में आये तो अपने ही भलाइ के मुताबिक अपनी गलती सुधार लेने के लिये अवश्य विचार करना चाहिये ।
___ वास्तव में वे लोग अनुकंपा पात्र है ऐसा कहने में कुछ भी अनुचित नहीं लगता है।
आज्ञाऽऽराद्धा विराद्धा च, शिवाय च भवाय च , इस तिथि प्रणालिका किताब का लेखन हमने "तमेव सच्चं नीस्संक, जं जिणेहिं पवेइयं" से वासनावासित अन्तःकरण से अपने क्षयोपशम के अनुसार अपनी समझ के अनुसार स्वपरकल्याणार्थे किया है । इसमें यदि प्रमाद के कारण श्रीवीतराग परमात्मा की आज्ञा से विपरीत लिखा गया हो तो उसके लिये विविध त्रिविध से "मिच्छा मि दुक्कड" देते हैं।
हमारे इस लेखन में यदि किसी को भूल मालुम पड जावे तो खुशी से भूल निकाल सकते हैं । किन्तु हमारे लेखन का पूर्णतः श्रवण-मनन-निदिध्यासन करके, हमारे हृदय के तात्पर्य का यथार्य अवगाहन करके निकाली यी भूल हमारे दिल को तनिक भी दुःख नहीं पहुंचायेगी । इस प्रकार सर्व वडील व मान्य महापुरुषों को अंजलिबद्ध हम बार बार विनयसहित निवेदन करते हैं।
विजयनन्दनसूरि शुभं भवतु चतुर्विधस्य श्रीश्रमणसंघस्य
|| नमो नमः श्री गुरुनेमिसूरये ।। वि. सं. 2014 में अहमदाबाद में सम्मिलित तपागच्छीय मनि संमेलन में वैशाख शुक्ल-चतुर्थी, बुधवार, ता. 23-4-1958 के दिन रखा गया जाहिर निवेदन .....