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तिथिविषयक विचारभेद के बारे में बारह पर्वतिथि, संवत्सरी महापर्व की आराधना का दिन, कल्याणक तिथिएँ और अन्य तिथिओं का समावेश होता है, उसमें
दो बीज, दो पंचमी, दो अष्टमी, दो एकादशी, पूर्णिमा और अमावास्या इन बारह पर्वतिथि के बारे में जो प्रणालिका है कि लौकिक पंचांग में जब भी इन पर्वतिथिओं की क्षय वृद्धि होने पर आराधना में इन बारह पर्वतिथिओं में से किसी भी पर्वतिथि की क्षय वृद्धि नहीं की जाती है किन्तु उसकी जगह अपर्वतथि की क्षय वृद्धि की जाती है। इस प्रकार से चली आती जो शास्त्रानुसारी शुद्ध प्रणालिका, जो पू. श्रीविजयदेवसूरिजी महाराज की परंपरा के नाम से प्रसिद्ध है इतना ही नहीं उसके पहले भी यही प्रणालिका थी, क्योंकि पू. श्री देवसूरिजी को पू. श्रीहीरसूरिजी महाराज की प्रणालिका से भिन्न प्रणालिका का प्रवर्तन करने का कोई विशिष्ट कारण या प्रयोजन हो ऐसा मानने के लिये कोई सबूत नहीं है ।
इतना ही नहीं पू. श्रीहीरसूरिजी महाराज के काल में भी इस प्रकार की प्रणालिका मान्य थी और वही प्रणालिका पू. श्रीदेवसूरिजी महाराज ने अपनायी, जो अब तक अपनी पट्टपरंपरा में अविच्छिन्न रूप से चली आती है और जिस प्रणालिका का संविग्न विद्वान् गीतार्थमहापुरुषों ने आदर किया है और आचरण किया है, इसमें किसी भी प्रकार के तर्क या शंका या चर्चा का स्थान नहीं है ऐसा हम मानते हैं।
अन्य किसी वर्ग की ऐसी मान्यता हो कि यह प्रणालिका यतिओं के गाढ़ अंधकारमय काल में असंविग्न-अगीतार्थ और परिग्रहधारी शिथिलाचारी द्वारा चलायी गयी है तो वही मान्यता उसी वर्ग को भले ही मुबारक हो । यतिओं में भले ही शिथिलाचार और परिग्रह हो तथापि इतना तो निश्चित ही है कि वे वीतराग धर्म के प्रति पूर्णतः श्रद्धावान तो थे ही। उन लोगों को तिथि के बारे में गलत हेतु सह अशुद्ध प्ररूपणा करने का कोई कारण नहीं था। उन लोगों ने तो उसी कठिन काल में धर्म की रक्षा की थी।
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तथापि इतना निश्चित है कि पूर्वोक्त बारह पर्वतिथि की क्षय वृद्धि मत करना, उसकी बदली में अपर्वतिथि की क्षय वृद्धि करने की आज तक चली आती अविच्छिन्न शुद्ध प्रणालिका सेंकडो साल से समग्र तपागच्छ संघ में अपने सर्व वडीलों ने अपनायी है, वह हमें मालुम है और पू. पंन्यास श्रीरूपविजयजी गणि महाराज की डहेळा के उपाश्रय की स्थापना से आज पर्यंत हम सब उसी प्रकार ही समग्र तपागच्छ संघ में आचरण करते हैं। भले ही कुछ लोगों के निश्चित वर्ग ने लौकिक पंचांग की पर्वतिथि की क्षय वृद्धि होने पर आराधना में वही क्षय वृद्धि कायम रखने की नयी प्रणालिका तपागच्छ के सभी आचार्यो की बिना संमति 22 साल से आचरण में रखी है किन्तु वि. सं. 1992 से पूर्व तो समग्र तपागच्छ में तथा उसी वर्ग में से भी किसी भी साधु-साध्वी या श्रावक-श्राविका ने पर्वतिथि की क्षय वृद्धि नहीं की है । किन्तु पू. मणीविजयजी दादा, पू. श्री बुटेरायजी म. पू. श्री मूलचंदजी म. पू. श्रीवृद्धिचंदजी म. पू. श्रीआत्मारामजी म. पू. पंन्यासजी श्रीप्रतापविजयजी गणि, पं. श्रीदयाविमळजी म. पं. श्री सौभाग्यविमळजी म. पं. श्रीगंभीरविजयजी गणि, दोनों कमळसूरिजी म. श्रीनीतिसूरिजी म. उपाध्याय श्री वीरविजयजी म. प्रवर्तक श्रीकान्तिविजयजी म. मुनि श्रीहंसविजयजी म. काशीवाले श्रीधर्मसूरिजी म. श्रीनेमिसूरिजी म., श्रीवल्लभसूरिजी म. श्रीदानसूरिजी म. तथा श्रीझवेरसागरजी म. श्रीसागरानंदसूरिजी म. तथा श्रीमोहनलालजी म., मुनिश्री कांति मुनिजी म. श्रीखांतिसूरिजी म. आदि तमाम अपने वडील पूज्य महापुरुषों ने वही प्रणालिका अर्थात् पर्वतिथि की क्षय वृद्धि नहीं करने का आचरण किया हैं और आदर भी किया है । उपर्युक्त सर्व महापुरुष गीतार्थ थे, अगीतार्थ नहीं थे, महात्यागी थे किन्तु शिथिलाचारी नहीं थे, परिग्रहधारी नहीं थे किन्तु शुद्ध अपरिग्रही थे, तथा विद्वान् और समयज्ञ पुरुष थे तथा वही काल भी अंधकारमय नहीं था। इतना ही नहीं वे सभी महापुरुष भवभीरु थे और शास्त्र के अनुसार ही प्रवृत्ति करनेवाले थे । उनको शास्त्र से विरुद्ध या परंपरा से विरुद्ध करने का कोई कारण नहीं था । और ऐसा मानना या बोलना भी हमारे लिये उन महापुरुषों की आशातना करना है ऐसा निश्चित हमारा मानना है ।
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