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प्रकाशित हुआ था और "वीर शासन " नामक मासिक में नाम-स्थान सहित शब्दशः प्रकाशित हुआ था ।
वढवाण केम्प जेठ वद-6, रविवार
अतः हमारा अंतिम अभिप्राय और कथन यह है कि --- बारह पर्वतिथि की क्षय-वृद्धि नहीं करना । लौकिक पंचांग में जब भी बारह पर्वतिथि की क्षय-वृद्धि हो तब आराधना में उसकी बदली में अपर्वतिथि की क्षय-वृद्धि ही करने की जो प्रणालिका है उसमें हम तनिक भी परिवर्तन करना नहीं चाहते हैं । और अपने समग्र तपागच्छ में चतुर्विध संघ उसी प्रणालिका को एक समान रूप से मान्य रखें और पिछले कुछेक वर्ष से जिन्हों ने उससे भिन्न प्रणालिका अपनायी है उसका वे लोग हृदय की विशालता से त्याग करें । ऐसी तपागच्छीय चर्विध श्रीसंघ को मेरी नम विनंति है । तथा इस चर्चा के विषय में बारह पर्वतिथि की क्षय-वृद्धि नहीं करने की प्रणालिका का समावेश करना उचित नहीं है ऐसा हम मानते हैं । बाकी संवत्सरी महापर्व की आराधना के दिन के बारे में और अन्य कल्याणक-तिथि आदि की चर्चा करके निर्णय करने में हमारी संमति है । उपर्युक्त बारह पर्वतिथि के बारे में भी अत्र उपस्थित दोनों पक्ष में से जिनको भी परस्पर चर्चा या विचार करना हो, वे कर सकते हैं । इतना ही नहीं उन लोगों के द्वारा परस्पर चर्चा या विचार करके जो भी सर्वसंमत निर्णय होगा, उसमें हमारी सम्मति है किन्तु आराधना में बारह पर्वतिथि की क्षय-वृद्धि करने की प्रणालिका को चर्चा का विषय नहीं बनाना चाहिये, यही हमारी मान्यता निश्चित ही है । वह अपने पूज्य वडीलों ने जिस प्रकार आचरणा की है, उसको अक्षुण्ण रखना चाहिये । और इसमें ही शास्त्रानुसारित्व, परंपरानुसारित्व और गुर्वाज्ञानुसारित्व पूर्णतः रहता है ऐसी हमारी मान्यता है ।
विजयनन्दनसूरि
वढवाण केम्प से विजयनन्दनसूरि,
तत्र मुनिश्री दर्शनविजयजी, मुनिश्री ज्ञानविजयजी, मुनिश्री न्यायविजयजी योग्य अनुवंदना
जेठ वद-3, गुरुवार का श्रावक गीरधरभाई के साथ भेजा हुआ पत्र मिला । संवत्सरी के बारे में तुमने कुछ स्पष्टीकरण पूछाये हैं किन्तु आप को मालुम है कि इस प्रकार के प्रश्नों के उत्तर के लिये प्रत्यक्ष मिलकर स्पष्टीकरण प्राप्त करना उचित है । आज दिन तक आपने आपकी ओर से पंचांग प्रकाशित करवाये, उसके बारे में हमें कुछ भी पूछाया नहीं है या उसी समय कुछ भी स्पष्टीकरण मांगा नहीं है । उसके बाद आपने "जैन पर्वतिथि का इतिहास" किताब छपवायी उसी समय भी हमें कुछ बताया नहीं था । तो अब स्पष्टीकरण पूछाने का क्या मतलब?
विशेष ता. 7-6-1948, सोमवार के "मुंबई समाचार" में प्रकाशित लेख हमने या हमारे गुरुजी ने दिया नहीं है या छपवाया नहीं है । और किसने समाचारपत्र में दिया वो भी हमें मालुम नहीं हैं । हम प्रायः कभी भी समाचारपत्र में कुछ भी देते नहीं हैं या छपवाते नहीं हैं तथापि हमने वो दिया हैं या छपवाया हैं ऐसा कोई माने तो वह उसकी नासमझ है ।
वि. सं. 1952 में जोधपुरी चंडाश्चंड पंचांग बनानेवाले पंडित श्रीधर शीवलाल को ही उसी वक्त पूछाने पर उन्हो ने लिखा था कि हमारा पंचांग ब्रह्मपक्षीय है, वह मारवाड में मान्य है, आप के प्रदेश में सौरपक्ष मान्य है तो उसी प्रकार से आप को छठ का क्षय करना । और इसके बारे में 1952, श्रावण सुद-15 का "जैन धर्म प्रकाश" पुस्तक-12, अंक - 5वॉ तथा 1952 अषाढ वद-11
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वि. सं. 2004 में सुरेन्द्रनगर में मुनि श्रीदर्शनविजयजी त्रिपुटी की ओर से आये। हये पत्र के उत्तर की नकल, जो पत्र उसी समय " शासन सुधाकर " नामक मासिक में आगे पीछे के नाम बिना "एक संत पुरुष का भेदी पत्र" शीर्षक से