________________
का "सयाजी विजय" पढ़ लेंगे तो विशेष स्पष्टता हो जायेगी। और आत्मारामजी महाराज का भी अपनी उपस्थिति में उसी प्रकार (6 के क्षय का) अभिप्राय था, वह भी आप को स्पष्ट हो जायेगा । ता. 18-5-1937 का "आत्मानंद प्रकाश" पु.34, अंक-12 में आ. श्री वल्लभसूरिजी भी लिखते हैं कि स्वर्गस्थ गुरुदेव की आज्ञानुसार 1952 में भाद्रपद शुक्ल 6 का ही क्षय किया गया था। तो यदि उसी वक्त आत्मारामजी महाराज ने आपने लिखा है उसी प्रकारभाद्रपद शुक्ल-5 के क्षय पर पंचमी का ही क्षय माना होता तो श्री वल्लभसूरिजी को अपने गुरुजी के विरुद्ध लिखने का कोई भी कारण हो ऐसा हम मानते नहीं हैं ।
वळी आप लिखते है कि आ. श्रीसिद्धिसूरिजी कहते हैं कि मैं भी पहले से ही पंचमी का क्षय मानता था और दूसरों ने भी पंचमी का क्षय करके चतुर्थी के दिन संवत्सरी की थी । वह भी तद्दन गलत है। इस प्रमाण 1989 के “वीरशासन" वर्ष 11 के अंक 41 और 44 में आचार्य श्रीदानसूरिजी के स्पष्टीकरण से स्पष्ट ह जायेगी क्योंकि इसमें भी आ. श्रीविजयसिद्धिसूरिजी तो क्या सकल श्री तपागच्छीय चतुर्विध संघ में से किसीने भी भाद्रपद शुक्ल-5 का क्षय माना नहीं था किन्तु अन्य पंचांग के आधार पर भा. शु-6 का ही क्षय माना था, यह बात स्पष्ट है ।
विशेष तुम लिखते हैं कि भाद्रपद शुक्ल-6 का क्षय करके भाद्रपद- 4, मंगळवार की संवत्सरी करने से आ. श्रीविजयरामचंद्रसूरिजी के साथ संवत्सरी होगी। अतः वे और उनका पक्ष मान्यता सही है ऐसा भद्रिक लोग या भदैया श्रावक मानेंगे । आपकी यह मान्यता भी गलत हे क्योंकि उनकी और अपनी संवत्सरी एक ही दिन आने से हम एक हो सकते नहीं क्योंकि वे लोग पंचमी का क्षय करते हैं और हम छठ्ठ का क्षय करते हैं। यदि हम ऐसा विचारेंगे तो लोकागच्छ आदि की संवत्सरी भी अपने साथ आने से क्या हम लोकागच्छ के हो जायेंगे । अतः इस बात का डर रखने का कोई कारण नहीं है ।
वळी आपने लिखा कि आप इस विषय में अच्छी तरह विचार करके मुद्दासर समाधान दें और विस्तार से स्पष्टीकरण करेंगे । तो हमने अपने
12
क्षयोपशम के अनुसार प्रायः प्रत्येक प्रश्न के बारेमें प्रथम से ही विचार कर रखा है । अणागए चउत्थीए पाठ की व्यवस्था तथा क्षये पूर्वा वचन की व्यवस्था भी हमारे ध्यान में है । प्रत्येक विषय में अपने क्षयोपशम के अनुसार विगतवार स्पष्टता है ही किन्तु पत्र में सभी प्रकार की चर्चा व स्पष्टता करनी मुताबिक नहीं है । बाकी आ. श्रीविजयानंदसूरिजी म. (श्री आत्मारामजी म.), पं. श्रीगंभीरविजयजी गणिजी, लवार की पोळ के उपाश्रयवाले पं. श्रीप्रतापविजयजी गणिजी आदि अपने सभी वडील शास्त्र व परंपरा के आधार पर चलनेवाले थे किन्तु अपनी कल्पना के आधार पर चलनेवाले नहीं थे । वे बहुश्रुत, भवभीरु, अनुभवी और श्रीवीतराग शासन के संपूर्ण प्रेमी थे। वे शास्त्र व परंपरा से विरुद्ध हो ऐसा कदापि करें ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है ।
शास्त्रानुसारी, अविच्छिन्न, सुविहित परंपरा अनुसार सैकाओं से यही एक राजमार्ग, धोरीमार्ग चला आ रहा है । वि. सं. 1952 में आ. श्रीसागरानंदसूरिजी ने अलग संवत्सरी की । सं. 1992-93 में आ. श्रीरामचंद्रसूरिजी उनके गुरु और उनके अनुयायीओं ने अलग संवत्सरी की। उनके सिवा भारतवर्ष के सर्व साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविकासहित चतुर्विध संघइसी धोरीमार्ग पर ही चला है और हम भी शास्त्र व परंपरा के अनुसार इसी धोरीमार्ग पर चल रहे हैं, तथापि जब आ. श्री सागरानंदसूरिजी सं. 1992 में संवत्सरी संबंधित सकल श्री संघ से अलग अपनी संवत्सरी की आचरणा की तथा आ. श्रीरामचंद्रसूरिजीने वि. सं. 1992-93 में संवत्सरी संबंधित अपनी अलग आचरणा की वह शास्त्र व श्रीविजयदेवसूरीय परंपरा के अनुसार सही है ऐसा हमारी समक्ष जाहिर व मौखिक शास्त्रार्थ से सिद्ध करेंगे तो हम भी अपनी परंपरा छोडने के लिये और मिच्छा मि दुक्कडं देने के लिये तैयार हैं । और इसमें हमारा कोई कदाग्रह नहीं है । तथा आपने लिखा कि भावि संघ की रक्षा व एकता के खातिर हमारी आपको नम्र विनंति है तो इसके बारेमें जानना कि संघ की रक्षा व एकता भा. शु-5 के क्षय में भा. शु-5 का ही क्षय मानने में
भा. शु.-5 के क्षय में भा. शु.-3 का क्षय करने में ही होगा ऐसा हम मानते