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किन्तु भाद्रपद शुक्ल पंचमी का क्षय नहीं करना, पंचमी को अखंड रखना और भाद्रपद शुक्ल पंचमी दो नहीं करना । आराध्य पंचमी के अव्यवहितपूर्व दिन पर संवत्सरी महापर्व की आराधना करनी । इस विचार पर तो दोनों संमत थे ।
वही तिथि के प्रामाण्य में उसी तिथि का औदयिकत्व ही कारण है।
चतुर्दशी होने पर भी त्रयोदशी के दिन चतुर्दशी करनेवाले तथा चतुर्दशी के दिन पूर्णिमा या अमावास्या करनेवाले आराधक ही है।
चतुर्दशी-पूर्णिमा या चतुर्दशी-अमावास्या दोनों संयुक्त पर्वतिथि में जब पंचांग में पूर्णिमा या अमावास्या का क्षय होने पर आराधना में "क्षये पूर्वा०" वचन की आवृत्ति (दो बार प्रवृत्ति) करने से चतुर्दशी पूर्णिमा या अमावास्या बनती है
और त्रयोदशी चतुर्दशी बनती है । और त्रयोदशी अनौदयिकी होने से उसका क्षय किया जाता है । अतः आराधना में चतुर्दशी होने पर भी प्रयोदशी के दिन चतुर्दशी करने से और ठीक उसी तरह चतुर्दशी के दिन पूर्णिमा या अमावास्या करने से और उसी प्रकार आराधना करने से परंपरावाले पूर्वोक्त सर्वमान्य शास्त्रवचन और श्रीविजयदेवसूरीय परंपरा अनुसार पूर्णतः आराधक ही है।
तिथि के प्रामाण्य में तिथि का भुक्त काल या तिथि की समाप्ति प्रायोजक नहीं है किन्तु "उदयंमि जा तिहि सा पमाणं०" इस सर्वमान्य वचन के अनुसार उसी तिथि का औदयिकत्व ही उस में प्रायोजक है । उसमें कोई मतभिन्य नहीं है।
पंचांग की क्षीण अष्टमी भी"क्षये पूर्वाo" वचन के अनुसार सप्तमी के दिन औदयिकी अष्टमी बनती है।
___ जब भी पंचांग मे पर्वतिथि का क्षय होता है अर्थात् उसका औदयिकत्व नहीं होता है तब आराधना में "क्षये पूर्वा०" वचन से पूर्व की जो तिथि है वह क्षीण तिथि के रूप में प्रमाणित होती है अर्थात् अष्टमी का क्षय होने पर"क्षये पूर्वाo" वचन से पूर्व की जो सप्तमी है वह अष्टमी तिथि के रूप में प्रमाणित होती है, इस प्रकार वह अष्टमी रूप में औदयिकी सिद्ध होती है अर्थात् वहाँ सप्तमी तिथि में जो औदयिकत्व है, उसकी निवृत्ति होती है अतः सप्तमी का क्षय किया जाता है और “क्षये पूर्वाo" वचन से अष्टमी में औदयिकत्व प्राप्त होता है ।
पंचांग में जब दो अष्टमी होती है तब पहली अष्टमी भी "वृद्धौ उत्तरा" वचन के अनुसार दूसरी औदयिकी सप्तमी बनती है।
जब पंचांग में दो अष्टमी होती है तब "वृद्धौ उत्तराo" वचन के अनुसार पहली अष्टमी में से अष्टमी के रूप में उसका औदयिकत्व निवृत्त होता है और पहली अष्टमी दूसरी सप्तमी बनती है और उसमें सप्तमी के रूप में औदयिकत्व प्राप्त होता है।
"वृद्धौ कार्या०" वचन से पहली पूर्णिमा या अमावास्या के दिन चतुर्दशी और चतुर्दशी के दिन दूसरी त्रयोदशी की जाती है।
पंचांग में पूर्णिमा या अमावास्या की वृद्धि अर्थात् दो हो तो आराधना में "वृद्धौ कार्या तथोत्तरा " वचन की आवृत्ति (दो बार प्रवृत्ति) करने से पहली पूर्णिमा या अमावास्या चतुर्दशी बनती है और वह औदयिकी सिद्ध होती है । तथा पंचांग की जो चतुर्दशी है वह औदयिकी दूसरी त्रयोदशी बनती है । इस प्रकार दो पूर्णिमा या अमावास्या की जगह दो त्रयोदशी की जाती है । इस प्रकार चतुर्दशी का अंश मात्र भी भुक्त काल न होने पर भी “वृद्धौ कार्या तथोत्तरा" नियम से पहली पूर्णिमा या अमावास्या को चतुर्दशी करके उसी प्रकार आराधना करने से परंपरावाले पूर्वोक्त शास्त्रवचन अनुसार पूर्णतः आराधक ही है।
पंचांग में चतुर्दशी होने पर भी त्रयोदशी के दिन चतुर्दशी आदि करना तथा पंचांग में भाद्रपद शुक्ल पंचमी दो होने पर पहली भा. शु. पंचमी के दिन दूसरी चतुर्थी मानना या मनाना अनर्थ का कारण नहीं है किन्तु सम्यक्त्वशुद्धि का ही आलंबन या कारण है।