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इस प्रणालिका के अनुसार संवत्सरी की आराधना करने से श्री कालिकाचार्य भगवंते पंचमी के रक्षणार्थ चतुर्थी का प्रवर्तन किया था उसकी अपेक्षा से पंचमी का रक्षण भी होता है। तथा संवत्सरी महापर्व का तथा आगामी बेसता वर्ष का समान वार मिल जाता है। अत एव सैकडो वर्ष से जिस वार की संवत्सरी हो उसी वार का नया बेसता वर्ष आता है, वह भी प्राप्त होता है ।
तिथि प्ररूपणा की प्राचीन मर्यादा डहेला के तथा लवार की पोळ के उपाश्रय की है । इस प्रकार समग्र हिन्दुस्तान का श्वेताम्बर मूर्तिपूजक तपागच्छ संघ करता आ रहा है ।
तिथि- प्ररूपणा की प्रणालिका अहमदाबाद परम पूज्य पंन्यास श्री रूपविजयजी गणिवरना डहेळाना उपाश्रय की और लवार की पोळ के उपाश्रय की होने से दोनों उपाश्रय की तिथि का और संवत्सरी का जो निर्णय होता है वह समग्र अहमदाबाद के तपागच्छ के सभी उपाश्रयवाले मान्य करते थे और मान्य कर रहे है । वही निर्णय अहमादाबाद का संपूर्ण तपागच्छीय संघ मान्य करते थे और मान्य रखते है, वही निर्णय हिन्दुस्तान का सकल तपागच्छीय संघ को मान्य होने की परंपरा है । अत एव हिन्दुस्तान के सभी गाँव, शहर के सभी तपागच्छ संघ में तिथि की व संवत्सरी महापर्व की एक समान आराधना चली आती है। आज तक इस प्रकार की प्रणालिका चली आती है। हमारे पूज्य वडील तथा हम भी डोळा के उपाश्रय की तथा लवार के उपाश्रय की प्रणालिका अनुसार संवत्सरी महापर्व की तथा तिथि की आराधना करते थे और करते रहेंगे। आज तक डहेळा के उपाश्रय की तथा लवार की पोळ के उपाश्रय की आराधना से भिन्न आराधना नहीं की है। उसी प्रकार डहेळा के उपाश्रय की तथा लवार की पोल के उपाश्रय की प्रणालिका अनुसार आराधना करेंगे ।
वि. सं. 1952 आदि में भाद्रपद शुक्ल पंचमी के क्षय होने पर छठ्ठ का क्षय सकल श्रीतपागच्छ संघने किया था ।
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वि. सं. 1952 में, वि. सं. 1961 में, वि. सं. 1989 में और वि. सं. 2004 में पंचांग में भाद्रपद शुक्ल पंचमी के क्षय होने पर अन्य पंचांग के आधार पर भाद्रपद शुक्ल छठ का क्षय करके, भाद्रपद शुक्ल पंचमी को अखंड रखकर भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को संवत्सरी महापर्व की आराधना सकल श्री तपागच्छ संघ ने की थी और वह उचित किया था ।
बाद में वि. सं. 2013 व 14 में पंचांग में भाद्रपद शुक्ल पंचमी का क्षय था, किन्तु उसी वख्त वि. सं. 1952, 1961, 1989 आदि की तरह छठ्ठ के क्षयवाले अन्य पंचांग का आधार नहीं लेकर किन्तु वर्तमान पंचांग मान्य करके "क्षये पूर्वाo" वचन के अनुसार भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के दिन पंचमी करके, भाद्रपद शुक्ल पंचमी अखंड रखकर वही आराधना पंचमी के अव्यवहितपूर्व के दिन संवत्सरी महापर्व की आराधना करनी। ऐसा निर्णय डहेळा के उपाश्रय तथा लवार की पोळ के उपाश्रय के संघ ने किया । उसी प्रकार आराधना करने का जाहिर हुआ । और उसी प्रकार समग्र तपागच्छ संघ ने आराधना की, हमने भी उसी प्रकार आराधना की ।
यद्यपि इन दोनों उपाश्रय के संघ में भी मतवैभिन्य था ।
यद्यपि डहेळा के उपाश्रय और लवार की पोळ के उपाश्रय के संघ में दो भिन्न विचार थे।
(1) भाद्रपद शुक्ल पंचमी के क्षय पर चतुर्थी का क्षय मानना और तृतीया के दिन तृतीया और चतुर्थी एक साथ मानकर भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी की संवत्सरी करना तथा भाद्रपद शुक्ल पंचमी दो हो तो भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी दो करना । यह विचार आचार्य श्री विजयहर्षसूरिजी के थे ।
(2) जब कि आचार्य श्रीविजयसुरेन्द्रसूरिजी (डहेळावाले) की मान्यता भाद्रपद शुक्ल पंचमी के क्षय होने पर चतुर्थी का क्षय न करके तृतीया का क्षय करने की थी और भाद्रपद शुक्ल पंचमी दो होने पर दो तृतीया करने की थी ।