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मानकर उसी दिन की जाती है और पूर्णिमा या अमावास्या की आराधना पंचांग की दूसरी पूर्णिमा या अमावास्या के दिन की जाती है।
भाद्रपद शुक्ल-5 (पंचमी) की वृद्धि में दो चतर्थी करने में ही आराध्य पंचमी से संवत्सरी का अनंतर चतुर्थीत्व तथा अव्यवहितपूर्ववर्तित्व सही मायने में होता है।
मानकर उसी दिन ही मनायी जाती है, इस प्रकार पहली एकादशी ही औदयिकी दूसरी दशम बनती है।
____ 12 (द्वादशी) की वृद्धि हो तो दो 12 की जाती है और दूसरी 12 के दिन आराधना की जाती है।
13 (त्रयोदशी) की वृद्धि हो तो 13 दो की जाती है और 13 की आराधना दूसरी 13 को की जाती है।
चैत्र शुक्ल 14 (चतुर्दशी) की वृद्धि हो तो दो प्रयोदशी करके दूसरी त्रयोदशी के दिन ही जन्मकल्याणक मनाया जाता है।
___ 14 (चतुर्दशी) की वृद्धि हो तो दो त्रयोदशी की जाती है और पंचांग की पहली चतुर्दशी को दूसरी त्रयोदशी करके 13 की आराधना की जाती है । 13 की सालगिराह भी उसी दिन मनायी जाती है । अत एव पंचांग में चतुर्दशी दो हो तो श्री महावीर जन्मकल्याणक की आराधना भी पंचांग की पहली चतुर्दशी को दूसरी 13 करके की जाती है । कल्याणक का जुलुस भी उसी दूसरी 13 के दिन नीकाला जाता है किन्तु दो चतुर्दशी नहीं की जाती है । वैसे पंचांग में दो चतुर्दशी हो तो त्रयोदशी की आराधना, कल्याणक व कल्याणक का जुलुस पंचांग की त्रयोदशी के दिन नहीं किया जाता है किन्तु पंचांग की पहली चतुर्दशी आराधना में औदयिकी 13 बनती है और इसी दिन ही 13 संबंधित सर्व कार्य किया जाता है ।
इस प्रकार भाद्रपद शुक्ल-5 (पंचमी) की वृद्धि अर्थात् पंचमी दो हो तो आराधना में पंचांग की पहली पंचमी को चतुर्थी करके उसे औदयिकी दूसरी चतुर्थी मानकर उसी दिन ही श्रीसंवत्सरी महापर्व की आराधना की जाती है किन्तु पंचमी दो नहीं की जाती है । इस प्रकार करने से संवत्सरी महापर्व का आराध्य पंचमी दिन से अव्यवहितपूर्ववर्तित्व और अनन्तरचतुर्थीत्व यथार्थ रूप से प्राप्त होता है और आराधना भी होती है । अत एव पंचांग में भाद्रपद शुक्ल पंचमी दो हो तो अर्थात् वि. सं. 1992 में भाद्रपद शुक्ल दूसरी चतुर्थी के दिन रविवार की संवत्सरी की तरह तथा वि. सं. 1993 में भाद्रपद शुक्ल दूसरी चतुर्थी दिन गुरुवार की संवत्सरी की तरह आराध्य पंचमी का दिन जो पंचांग में दूसरी पंचमी का दिन है, उसके अव्यवहितपूर्ववर्ति पहली पंचमी के दिन दूसरी चतुर्थी करके संवत्सरी महापर्व की आराधना करना उचित है और इसमें ही "अन्तरा विय से कप्पइ०" इसी सर्वमान्य आगमवचन का तात्पर्य और प्रामाण्य निहित है।
साथ साथ भाद्रपद शुक्ल पंचमी का पंचांग में क्षय होने पर अन्य पंचांग के आधार पर भाद्रपद शुक्ल षष्ठी का क्षय मानकर भाद्रपद शुक्ल पंचमी को अखंड रखकर चतुर्थी के दिन संवत्सरी महापर्व की आराधना की जाती है। किन्तु पंचमी का क्षय नहीं किया जाता है तथा चतुर्थी और पंचमी इकट्ठे नहीं किये जाते है, तथा तृतीया का क्षय नहीं किया जाता है । इस प्रकार की तिथि की शुद्ध प्रणालिका शास्त्र व विजयदेवसूरीय परंपरानुसार आज तक चली आती है।
पूर्णिमा-अमावास्या की वृद्धि में भी 13 की ही वृद्धि की जाती है ।पूर्णिमा या अमावास्या की वृद्धि में भी दो त्रयोदशी की जाती है। पंचांग की पहली पूर्णिमा या अमावास्या को चतुर्दशी की जाती है और पंचांग की दूसरी पूर्णिमा या अमावास्या को ही पूर्णिमा या अमावास्या की जाती है । इस तरह 13 की कल्याणक की आराधना पंचांग की चतुर्दशी को ही दूसरी त्रयोदशी मानकर की जाती है और चतुर्दशी की आराधना (पौषध, पक्खी, चातुर्मासिक प्रतिक्रमण आदि) पंचांग की पहली पूर्णिमा या पहली अमावास्या के दिन चतुर्दशी करके उसे औदयिकी चतुर्दशी